अदालतों को इंसाफ का मंदिर कहा जाता है। उनमें वकील की भूमिका वादी या प्रतिवादी के कानूनी सहायक की होती है। इसके एवज में वकील फीस तय करते हैं। जो जितना काबिल वकील होता या माना जाता है, उसकी फीस उतनी ही ऊंची होती जाती है। इसलिए इस पेशे में अपनी योग्यता को लगातार बढ़ाते, प्रतिभा को निखारते और तार्किक वक्तृता कौशल को धारदार बनाते रहने की जरूरत महसूस की जाती है।

मगर जबसे वकालत के पेशे में भी आसान रास्तों से पैसा कमाने की प्रवृत्ति गहरी होती गई है, तबसे मुवक्किल जुटाने की प्रतियोगिता-सी देखी जाती है। इसके लिए बहुत सारे वकील दलालों की मदद लेते हैं। मुवक्किल लाने की एवज में उन्हें पैसा देते हैं। ऐसे में दलाल नए और भोले-भाले मुवक्किलों को कई ऐसे वकीलों के बारे में बढ़ा-चढ़ा कर बताते और उनके पास ले जाते हैं, जिन्हें सामान्य प्रतिभा का कहा जा सकता है।

जिन्हें आमतौर पर बहुत कम मुकदमे मिलते हैं। वे मुकदमे को लंबे समय तक खींचते रहते हैं, ताकि उनकी फीस बनती रहे। इस तरह मुकदमे का फैसला होने में भी देर होती है और बहुत सारे लोगों को उचित न्याय नहीं मिल पाता। ऐसे दलाल हर अदालत के बाहर, रेलवे स्टेशनों, बस ठहराव आदि पर मिल जाते हैं।

केंद्र सरकार ने अदालतों को दलालों से मुक्त करने के मकसद से अधिवक्ता संशोधन विधेयक तैयार किया था। अब उसे लोकसभा में भी मंजूरी मिल गई है। इसे पिछले संसद सत्र में ही राज्यसभा में मंजूरी मिल गई थी। इस कानून के बाद अदालत परिसरों में दलालों की पैठ बंद हो जाएगी। अदालतें ऐसे लोगों की सूची तैयार कर सकेंगी, जिन्हें दलाल के रूप में चिह्नित किया जाएगा।

स्वाभाविक ही इससे उम्मीद बनी है कि भोलेभाले लोग कम प्रतिभा वाले या अयोग्य वकीलों के चंगुल में फंसने से बच जाएंगे। इस तरह उन प्रतिभाशाली और योग्य वकीलों को भी मुकदमे मिल सकेंगे, जो किसी तरह के तिकड़म का सहारा नहीं लेते। योग्य वकील न केवल अपने मुवक्किल को सही सलाह देता और उसके मामले का शीघ्र निपटारा करवाने का प्रयास करता है, बल्कि उसकी दलीलों से न्यायाधीशों को भी कानूनी बारीकियां समझने और उचित निर्णय तक पहुंचने में मदद मिलती है। अयोग्य वकील अदालत और अपने मुवक्किल दोनों का सिर्फ समय बर्बाद करता है। इस लिहाज से अदालतों पर मुकदमे के बोझ से भी कुछ मुक्ति मिलने की उम्मीद की जा सकती है।

मगर दलाली की समस्या सिर्फ अदालतों तक सीमित नहीं है। बहुत सारे छोटे-छोटे कामों में दलालों की वजह से लोगों को बेवजह इधर से उधर भटकना और उलझना पड़ता है। छोटे-मोटे लाइसेंस बनवाने या किसी संस्था आदि का पंजीकरण कराने जैसे कामों में भी इतने तरह की औपचारिकताएं पूरी करनी पड़ती हैं कि उनमें दलालों के लिए भरपूर जगह बन गई है।

सरकारी योजनाओं में शायद ही कोई ऐसा काम हो, जिसमें दलालों की पहुंच न हो। चाहे वह पंचायतीराज व्यवस्था से जुड़े काम हों या फिर तहसीलों में जमीन-जायदाद से जुड़े काम, सबमें दलाल सक्रिय देखे जाते हैं। फिर बड़े सरकारी सौदों में भी बिना दलाल के काम होना कई बार जटिल हो जाता है। रक्षा सौदों में दलाली को लेकर लंबे समय से सवाल उठते ही रहे हैं। इसलिए केवल अदालतों में नहीं, हर ऐसी जगह से दलाली की गुंजाइश खत्म करने का प्रयास होना चाहिए जहां आमजन से जुड़े मसले निपटाए जाते हैं।