एक बार फिर नीतीश कुमार ने बिहार के मुख्यमंत्री पद की शपथ ली। उनके अलावा, जनता दल (यू) और राष्ट्रीय जनता दल के बारह-बारह और कांग्रेस के चार विधायकों ने भी मंत्री-पद की शपथ ली। शपथ ग्रहण की दो बातें खास गौरतलब हैं। एक यह कि लालू प्रसाद यादव के दोनों बेटे भी मंत्री बन गए। एक को तो उपमुख्यमंत्री पद मिला। साफ है कि इस गठबंधन और इस सरकार के जरिए लालू प्रसाद क्या चाहते हैं। उनकी पार्टी को सबसे शानदार कामयाबी मिली। एक सौ एक सीटों पर राजद के उम्मीदवार थे और अस्सी पर जीते। वह नई विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी है। राजद की तरफ से मंत्रिमंडल में कौन-कौन शामिल होंगे, यह फैसला लालू प्रसाद यादव ने ही किया होगा। अपने दोनों बेटों को, जिन्होंने पहली बार विधानसभा का चुनाव लड़ा, मंत्रिमंडल में जगह दिला कर लालू ने यह जताने में कोई कसर बाकी नहीं रखी कि राजनीति में उनकी प्राथमिकता क्या है। पार्टी को उन्होंने एक तरह से परिवार की जागीर बना दिया है। तेजस्वी यादव के उपमुख्यमंत्री बनने से जाहिर है कि पार्टी में भी, उनके पिता के बाद, कोई और उनके कद का नहीं होगा। शपथ ग्रहण की दूसरी खास बात देश भर से गैर-भाजपा नेताओं का जमावड़ा मानी जाएगी। खुद नीतीश ने ट्वीट कर बताया कि कौन-कौन आमंत्रित हैं।

ममता बनर्जी, अखिलेश यादव, अरविंद केजरीवाल, तरुण गोगोई, पीके चामलिंग, ओ इबोबी सिंह, नबम तुकी, वीरभद्र सिंह और एस सिद्धरमैया के रूप में अनेक गैर-भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री मौजूद थे। कई पूर्व मुख्यमंत्रियों ने भी शिरकत की। माकपा और भाकपा से लेकर राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, जनता दल (एस) और इंडियन नेशनल लोकदल तक कई पार्टियों के दिग्गज भी हाजिर थे। लिहाजा, यह शपथ ग्रहण समारोह एक प्रकार का शक्ति-प्रदर्शन भी था। यों बिहार भाजपा के भी कुछ नेता मौजूद थे, पर वह केवल शिष्टाचार था। इस जमावड़े से यह संदेश गया है या नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव ने यह जताना चाहा है कि वे भाजपा के विरोध में राष्ट्रीय स्तर पर मोर्चा बनाने के ख्वाहिशमंद हैं। लालू ने तो बिहार से बाहर दौरा करने का एलान भी कर रखा है।

लेकिन उन पर लगे पुराने आरोप और परिवारवाद का बिल्ला क्या उन्हें विपक्ष की धुरी बनने देंगे? फिर, बहुत कुछ इस पर निर्भर करेगा कि जिन राज्यों में एक-दो साल में चुनाव होने हैं वहां क्या समीकरण बनेंगे। नीतीश की छवि साफ-सुथरी है और महागठबंधन को चुनाव में इसका बहुत फायदा भी मिला। पर अब नीतीश के सामने नई चुनौतियां होंगी। क्या वे लालू के लोगों को मर्यादा में रख पाएंगे, जो लंबे समय बाद सत्ता के गलियारे में आने पर मौकों की ताक में होंगे। आरक्षण पर मोर्चेबंदी से महागठबंधन को चुनाव में लाभ हुआ। पर अब नीतीश को दिखाना होगा कि उनकी सरकार का स्वरूप और उनकी नीतियां समावेशी हैं। चुनाव के दौरान विकास मॉडल को भी नीतीश ने बहस का विषय बनाने की कोशिश की थी, जो कि अच्छी बात है। अब उनके सामने विकास के अपने मॉडल को आगे बढ़ाने की चुनौती है। इसमें वे कामयाब हुए तभी राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने के हकदार होंगे।