बिहार में पिछले साल हुए विधानसभा चुनाव में राजद-जदयू गठबंधन को मिली भारी जीत का एक बड़ा कारक उसमें प्रचार के दौरान शराबबंदी के वादे को माना गया। अच्छी बात है कि जीत के बाद गठबंधन ने इस वादे को याद रखा और अब उस पर अमल की औपचारिक घोषणा के साथ ही बिहार देश का चौथा ऐसा राज्य बन गया है, जहां पूरी तरह शराब पर प्रतिबंध है। हालांकि एक सवाल यह उठाया गया कि इस पहल से राज्य को करीब साढ़े तीन हजार करोड़ रुपए सालाना राजस्व का नुकसान उठाना पड़ेगा और बड़ी तादाद में लोगों के रोजगार छिनेंगे। लेकिन जो लोग यह सवाल उठा रहे थे, उन्हें भी यह बताना जरूरी नहीं लगा कि इसकी कितनी कीमत समाज के गरीब तबकों को चुकानी पड़ रही है।

अच्छा यह है कि नीतीश कुमार अपने फैसले पर अडिग रहे। बल्कि एक उपाय उन्होंने यह बताया कि जिन लोगों को शराब बेचने का लाइसेंस दिया गया था, वे चाहें तो उसमें दूध सहित सुधा डेयरी के अन्य उत्पाद बेच सकते हैं। जाहिर है, अगर कोई सरकार किसी समस्या से निपटने की इच्छाशक्ति रखती है तो वह विकल्प खड़े कर लेती है। फिर भी, शराबबंदी के बाद माफिया का गैरकानूनी कारोबार रोकने के लिए अपने सीमित संसाधनों और संबंधित महकमों में कर्मचारियों की भारी कमी की चुनौती से सरकार कैसे निपटेगी, यह देखने की बात होगी। कुछ राज्यों में शराबबंदी और उसके बाद अलग-अलग कारणों से उसे खत्म करने के भी उदाहरण रहे हैं। लेकिन अगर उनसे सबक लेकर बिहार सरकार अपने कदम बढ़ाती है तो इस अहम पहलकदमी की कामयाबी मुमकिन है।

यों जिन हालात और मकसद को ध्यान में रख कर नीतीश कुमार सरकार ने पहल की है, वह अपने आप में किसी भी व्यवस्था की जिम्मेदारी होनी चाहिए। दरअसल, अपने पिछले कार्यकाल में भाजपा के साथ गठबंधन में रहते हुए नीतीश कुमार सरकार ने जिस तरह हर पंचायत में शराब की दुकान खोलने की इजाजत दी थी, उसका घातक असर साफ देखा जा सकता था। यों भी किसी नशे की आसान उपलब्धता लोगों को उसके सेवन की आदती बना देती है। यह कोई छिपा तथ्य नहीं है कि गरीब तबकों के बीच अगर किसी व्यक्ति को शराब की लत लग जाती है तो उसका पूरा परिवार एक ऐसी त्रासदी का शिकार हो जाता है जिसे टाला जा सकता था। बच्चों का भविष्य खत्म हो जाता है और खासतौर पर महिलाओं के साथ होने वाली हिंसा, उनकाअपमान ही दिनचर्या का हिस्सा हो जाता है। गुजारा चलाने के लिए कमाई गई रकम का ज्यादातर हिस्सा अगर शराब में खप जाता हो तो उस परिवार की आर्थिक दशा का अंदाजा लगाया जा सकता है।

हर साल दर्जनों लोग जहरीली शराब पीने से जान गंवा बैठते हैं। गरीब तबका इस आदत के चलते भी यथास्थिति में बने रहने को मजबूर होता है। पंजाब इसका उदाहरण है कि नशे की लत के सामाजिक असर कितने घातक हो सकते हैं। लेकिन सामाजिक आंदोलनों के दौर में बढ़ती जागरूकता के चलते लोगों और खासकर महिलाओं ने इस त्रासदी और उसकी जड़ों की पहचान की और पिछले कुछ सालों में बिहार के अलग-अलग हिस्सों में बड़े पैमाने पर शराबबंदी के लिए आंदोलन चलाया था। यही वजह है कि शराबबंदी की घोषणा के साथ ही राज्य में बड़े पैमाने पर महिलाओं ने सार्वजनिक रूप से खुशी का इजहार किया है।