अनेक संवेदनशील मामलों की जांच से जुड़े राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के वरिष्ठ अधिकारी तंजील अहमद का बिजनौर में एक सुनियोजित हमले में मारा जाना कई अहम सवाल खड़े करता है। इस हत्या के कारणों का खुलासा तो जांच से जुड़ी खुफिया एजेंसियों, उत्तर प्रदेश पुलिस के विशेष जांच दल, आतंकरोधी दस्ते और एनआईए की पड़ताल के बाद ही होगा, लेकिन सवाल है कि खतरों से लबालब अहम जिम्मेदारी का निर्वाह करने वाले अधिकारी को इतना अरक्षित क्यों छोड़ दिया गया कि दो हमलावर आए और उन पर ताबड़तोड़ गोलियां बरसा कर भागने में सफल हो गए!

गौरतलब है कि सीमा सुरक्षा बल के सहायक कमांडेंट और छह साल से प्रतिनियुक्ति पर एनआईए में वरिष्ठ जांच अधिकारी के तौर पर कार्यरत तंजील पठानकोट वायुसैनिक ठिकाने पर इस साल जनवरी में हुए आतंकवादी हमले और 2014 के बर्धमान बम धमाकों की जांच कर रहे थे। पिछले दिनों पठानकोट आए पाकिस्तानी जांच दल के समक्ष भी उन्होंने भारत के जुटाए सबूतों को असरदार तरीके से प्रस्तुत किया था। उर्दू के अच्छे जानकार तंजील अहमद को बड़े से बड़े आतंकी संगठन की कूटभाषा पढ़ने और इलेक्ट्रॉनिक निगरानी (सर्विलांस) में दक्षता के कारण आतंकियों की बातचीत को आसानी से पकड़ लेने में महारत हासिल थी।

इसीलिए उन्हें एनआईए के सबसे तेजतर्रार अफसरों में गिना जाने लगा था। इन वजहों से उनका आतंकियों और अपराधियों की आंखों में कांटे की तरह खटकना स्वाभाविक था आखिरकार उन्होंने अपने नापाक इरादों को अंजाम दे डाला। इस हत्याकांड में जहां देश ने एक कर्तव्यनिष्ठ, काबिल और जांबाज अधिकारी को खोया है, वहीं दो मासूम बच्चों ने अपने पिता और एक पत्नी ने पति को खोने का ताउम्र सताने वाला दर्द पाया है। इस दर्द का प्रतिकार भविष्य में ऐसी वारदात की पुनरावृत्ति रोकना भी है। लेकिन क्या हम इस दिशा में कभी गंभीर रहे हैं?

तंजील अहमद की हत्या को जांच एजेंसियां एक सुनियोजित साजिश बता रही हैं। आला पुलिस अधिकारियों के मुताबिक हमलावर जिस इत्मीनान से आए और ताबड़तोड़ गोलियां बरसार्इं उससे भी साफ है कि उन्होंने बाकायदा पूरी तैयारी कर रखी थी। उन्होंने पहले तंजील अहमद पहचान की और फिर उनके सीने और गले को निशाना बना कर अंधाधुंध फायरिंग की। अफसोस की बात है कि इस वारदात की जगह से पुलिस चौकी कुल पचास मीटर दूर थी, फिर भी उसे घटनास्थल तक पहुंचने में आधा घंटा लग गया। उत्तर प्रदेश में पुलिस की मुस्तैदी और कानून व्यवस्था की हालत का यह त्रासद नमूना है। किसी आतंकी वारदात या गंभीर अपराध की जांच से जुड़े अधिकारियों और गवाहों की जान के लिए जोखिम हमेशा रहता है। उन्हें रास्ते से हटाने के मामले भी सामने आते रहे हैं।

ऐसे मामलों की गूंज विधायिका तक भी पहुंची तो गवाहों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए कानून बनाया गया और इस संबंध में दिशा-निर्देश भी जारी हुए। लेकिन इस पूरी कवायद में जांच से जुड़े कर्मचारियों-अधिकारियों की सुरक्षा के सरोकार की सरासर अनदेखी ही हुई है। तंजील अहमद की हत्या इस अनदेखी की चीख-चीख कर गवाही देती है। परिजनों के मुताबिक आतंकियों के अलावा उनका कोई दुश्मन नहीं था। अगर सचमुच आतंकवादियों का इस वारदात में हाथ है तो यह हमारे आतंकरोधी तंत्र के लिए एक नई चुनौती है। ऐसे में आतंकी घटनाओं की जांच पर कोई आंच न आए इसके लिए जांच से जुड़े सभी लोगों की सुरक्षा सुनिश्चित करना वक्त का तकाजा है।