दुनिया भर में तकनीकी के विस्तार के साथ जैसे-जैसे इस तक लोगों की पहुंच का दायरा बढ़ रहा है, वैसे-वैसे इसका असर भी साफ देखा जा सकता हौ। खासतौर पर मनोरंजन के माध्यम के रूप में पिछले कुछ सालों के दौरान इंटरनेट पर ‘ओवर द टाप’ यानी ओटीटी मंचों का प्रसार तेजी से हुआ और कंप्यूटर के अलावा ज्यादातर लोगों के पास स्मार्टफोन होने की वजह से इस पर प्रसारित सामग्रियों तक लोगों की आसान पहुंच बनी है।
सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों पर ज्ञान-विज्ञान से संबंधित सामग्रियां भी मौजूद हैं, जिनका लाभ वयस्क या बच्चे उठाते हैं। इसे तकनीक के सकारात्मक विस्तार के रूप में देखा जा सकता है। लेकिन इसके समांतर इन पर प्रसारित फिल्मों या अन्य कार्यक्रमों की भाषा और प्रस्तुति को लेकर अब सवाल उठने लगे हैं।
खासतौर पर ओटीटी मंचों पर ऐसी फिल्में सबके लिए सुलभ हैं, जिसमें कई बार अश्लील भाषा का इस्तेमाल धड़ल्ले से होता है और धीरे-धीरे यह लोगों की सोचने-समझने की प्रक्रिया को दूषित करता है। इसका एक चिंताजनक प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है, जो अनजाने ही अवांछित सामग्रियों के संपर्क में आ जाते हैं।
शायद यही वजह है कि हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने इस मसले पर कहा था कि सोशल मीडिया और ओटीटी मंचों पर विषय-वस्तु को विनियमित करने के लिए नियम और दिशानिर्देश तैयार करने पर तुरंत ध्यान देने की जरूरत है। अदालत ने सार्वजनिक और सोशल मीडिया मंचों पर अश्लील भाषा को गंभीरता से लेने को रेखांकित क्या था, जो कम उम्र के बच्चों के लिए भी आसानी से सुलभ हैं।
इसी संदर्भ में अब केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय को आश्वासन दिया है कि सोशल मीडिया मंचों और मध्यवर्ती संस्थाओं को नियंत्रित करने वाली उसकी नीति में आवश्यक नियम और विनियम शामिल होंगे कि ये मंच अश्लील भाषा और अपवित्र आचरण से मुक्त हों। गौरतलब है कि एक ओटीटी मंच पर प्रसारित एक वेब सीरीज में इस्तेमाल भाषा के बारे में सख्त टिप्पणी करते हुए उच्च न्यायालय ने कहा था कि अभद्र भाषा के रूप में अश्लीलता का इस्तेमाल महिलाओं को अपमानित करता है, क्योंकि अपशब्द और अश्लीलता महिलाओं को सिर्फ देह और वस्तु होने के रूप में संदर्भित करती है।
दरअसल, आज कई ओटीटी मंचों पर प्रस्तुत फिल्मों या सीरीज में जैसी सामग्रियां परोसी जा रही हैं, उसके पीछे कोई तर्क नहीं है। कलात्मकता, भदेसपन और खुलेपन के नाम पर जैसी भाषा और जैसे दृश्य प्रदर्शित किए जाते हैं, उसे वास्तविकता के तत्त्व को बढ़ाने वाला बताया जाता है। हकीकत यह है कि इनका असर उन लोगों पर पड़ता है, जो भाषा और दृश्यों के जरिए समाज के सोचने-समझने की दिशा के बारे में परिपक्व तरीके से नहीं सोच पाते हैं। आज स्मार्टफोन और अन्य संसाधनों तक पहुंच की वजह से बहुत सारे बच्चे भी ओटीटी मंचों पर फिल्में या सीरीज को देखने में दिलचस्पी लेते हैं।
यह ध्यान रखने की जरूरत है कि बच्चों का कोमल मन-मस्तिष्क ऐसी संवेदनशील प्रस्तुतियों से गहरे तक प्रभावित होता है और एक तरह से यह उनका समाजीकरण भी होता है। ऐसे में अश्लील भाषा या सामग्रियों के जरिए उनके भीतर कैसी सोच-समझ बनती होगी? इस चिंता का मजबूत आधार है कि समाज में या फिर किसी दृश्य माध्यम में अभद्र भाषा का इस्तेमाल महिलाओं के खिलाफ दोयम दर्जे की मानसिकता का ढांचा तैयार करता है।
इसलिए इस मसले पर अदालत की चिंता और केंद्र सरकार के रुख के बाद उम्मीद की जानी चाहिए कि इस दिशा में ठोस मानक तैयार किए जाएंगे, जो अभिव्यक्ति की आजादी को बाधित किए बिना भी लोगों और समाज को आगे ले जाने में मददगार साबित हों।