उत्तरकाशी में हुए सुरंग हादसे में फंसे सभी मजदूरों को सुरक्षित निकाल लिए जाने के बाद समूचे देश के लोगों को राहत और खुशी मिली है। इस दौरान तकनीक की उच्च क्षमताओं से लेकर आपात अवस्था में कुछ पारंपरिक तरीके अपना कर बचाव कार्य के संचालन और इस अभियान में लगे लोगों के सरोकारों के तमाम उदाहरण सामने आए।
एक बार फिर सबने देखा कि हादसे में फंसे मजदूर जहां अपने जीवट और साहस के दम पर करीब सत्रह दिनों तक जोखिम के बीच टिके रहे, वहीं सरकार ने उन्हें बचाने के लिए हर संभव उपाय किए। आखिर इस अभियान में मिली कामयाबी ने मजदूरों को बचाने की कोशिशों के एक व्यापक सरोकार को जीवन दिया।
मगर यही वह वक्त भी है जब इस मसले पर विचार किया जाना चाहिए कि किसी बड़े हादसे के बाद ही उससे निपटने या उससे उपजी मुश्किलों को कम करने के प्रयास शुरू क्यों किए जाते हैं! निर्माण कार्यों की शुरुआत से पहले उसके जोखिम या खतरे का आकलन करके आशंकाओं से निटपने के लिए हर स्तर पर ठोस इंतजाम क्यों नहीं किए जाते, ताकि आपात स्थितियों में नुकसान से बचा या उसे न्यूनतम किया जा सके?
दरअसल, इस सुरंग हादसे में फंसे मजदूरों को बचा लिया जाना एक बड़ी कामयाबी जरूर है, लेकिन इसके साथ ही यह समूची घटना फिर से एक बड़ा सबक देकर गई है। हालांकि वक्त के साथ विकास के क्षेत्र में सभी स्तरों पर निर्माण कार्यों में आधुनिक तकनीकी के जरिए गुणवत्ता सुनिश्चित करने से लेकर निर्धारित या कम समय में किसी परियोजना को पूरा करने जैसे काम उपलब्धि के तौर पर देखे जा सकते हैं, मगर सवाल है कि पहाड़ी इलाकों में सड़कें या सुरंग जैसे निर्माण कार्यों में हर स्तर पर जोखिम का सटीक आकलन, उसके मद्देनजर सावधानी, सुरक्षा और पहाड़ धंसने जैसी आपात स्थिति में बचाव के पूर्व इंतजामों को लेकर जरूरी गंभीरता क्यों नहीं बरती जाती।
उत्तरकाशी में सुरंग में पहाड़ धंसने की घटना से पहले भी इस तरह के छोटे-बड़े कई हादसे हो चुके हैं। मुश्किल यह है कि त्रासद उदाहरण मौजूद होने के बावजूद नए सुरंग निर्माण कार्यों के दौरान तब तक जरूरी सावधानी बरतने को प्राथमिकता नहीं दी जाती, जब तक कि फिर कोई भयानक हादसा न हो जाए।
उत्तराखंड या अन्य पहाड़ी राज्यों के जिन इलाकों में चौड़ी सड़कों और सुरंगों के सहारे एक से दूसरी जगह की यात्रा को आसान बनाने के दावे किए जाते हैं, वहां अगर भूस्खलन या जमीन में दरार पड़ने की घटनाएं सामने आती हैं, तो इसका मतलब यही है कि निर्माण कार्यों के दौरान पहाड़ के चट्टानों, मिट्टी की प्रकृति और उनकी पकड़ का सटीक आकलन नहीं किया जा सका।
यों भी हिमालय को सबसे नई पर्वत शृंखलाओं में से एक और भूकम्प के लिहाज से संवेदनशील क्षेत्र माना जाता है। अगर इस तरह के जोखिम के बीच काम किए जाते हैं, तो हादसों की आशंका लगातार बनी रहती है। फिर क्या सुरंग बनाने की वैसी तकनीक का इस्तेमाल अनिवार्य नहीं बनाया जाना चाहिए, जो पहाड़ों और उनकी पारिस्थितिकी को नुकसान नहीं पहुंचाए?
निर्माण गतिविधियों के दौरान विस्फोट के जरिए पहाड़ों को तोड़ना किस स्तर का जोखिम पैदा कर सकता है? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि पिछले कुछ समय से उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश जैसे पहाड़ी इलाकों में भूस्खलन की घटनाओं से गंभीर चिंता खड़ी हो रही है। ऐसे में अलग-अलग इलाकों की दूरी को कम करने के लिए सड़कों से लेकर हाइड्रो परियोजनाओं के लिए सुरंगों के निर्माण में किस स्तर के खतरे जुड़े हुए हैं? निश्चित रूप से विकास एक जरूरी पहलू है, लेकिन प्रकृति पर संकट के समांतर इसमें अनिवार्य संतुलन कायम रखना भी वक्त का तकाजा है।