बुनियादी ढांचा अर्थव्यवस्था का आधार होता है। वित्तीय संकट की स्थिति में भी यही क्षेत्र अर्थव्यवस्था को संबल देता है। मगर देश में बुनियादी ढांचे की तस्वीर बहुत अच्छी नहीं है। इससे जुड़ी अधिकतर परियोजनाएं देरी से चल रही हैं। इसमें लगातार विलंब के कारण सरकारी खजाने पर खर्च का बोझ भी बढ़ता जा रहा है।
बुनियादी ढांचे में सड़कें, पुल, सिंचाई के संसाधन, बिजली, बंदरगाह, हवाई अड्डे और सामाजिक महत्त्व की योजनाएं शामिल होती हैं। व्यापक निवेश, लंबी अवधि और सामाजिक लक्ष्यों को देखते हुए ये नियमित परियोजनाओं से बहुत भिन्न होती हैं। इनमें अगर हीला-हवाली या भ्रष्टाचार का घुन लगता है, तो इसका सीधा असर विकास की गति पर पड़ता है। दुर्भाग्य से ऐसा ही हो रहा है।
सांख्यिकी और कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की पिछले महीने आई रिपोर्ट के मुताबिक डेढ़ सौ करोड़ रुपए से अधिक खर्च वाली एक हजार सात सौ बासठ परियोजनाओं में से चार सौ बारह की लागत इस साल अगस्त तक तय अनुमान से 4.77 लाख करोड़ रुपए बढ़ गई है, जबकि आठ सौ तीस परियोजनाएं देरी से चल रही हैं।
इन परियोजनाओं के क्रियान्वयन की मूल लागत बीते मार्च में पच्चीस लाख एक हजार चार सौ करोड़ रुपए आंकी गई थी, लेकिन अब इसे और बढ़ाकर उनतीस लाख अठहत्तर हजार छह सौ इक्यासी करोड़ रुपए किए जाने का अनुमान है। देर से चलने के कारण मूल लागत में बढ़ोतरी वाली परियाजनाओं की संख्या बीते मार्च में एक हजार चार सौ उनचास थी, जबकि देरी से चलने वाली परियोजनाओं की संख्या आठ सौ इक्कीस दर्ज की गई थी। पांच माह में दोनों में ही बढ़ोतरी हुई है।
इन आंकड़ों से साफ है कि बुनियादी ढांचा क्षेत्र की हालत दिनों-दिन खराब हो रही है। हालांकि मंत्रालय की रपट में परियोजनाओं की देरी का कारण कोविड के दौरान लागू पूर्णबंदी को बताया गया है। अगर ऐसा मान भी लें तो बीते एक साल में पूरी तरह सामान्य हुए हालात के मद्देनजर स्थिति सुधर जानी चाहिए थी या उसमें सुधार के संकेत तो दिखने ही चाहिए थे।
लेकिन ऐसा हुआ नहीं। रिपोर्ट में हर स्तर पर मार्च के मुकाबले हालात खराब ही दर्शाए गए हैं। इसके अलावा, योजनाओं की देरी के लिए अन्य बड़े कारण भूमि अधिग्रहण, पर्यावरण और वन विभाग की मंजूरी, निविदा प्रक्रिया तथा ठेके देने और उपकरण मंगाने में देरी के साथ-साथ बुनियादी संरचना की कमी, परियोजना का वित्तपोषण और इसकी संभावनाओं में बदलाव, कानूनी और अन्य अड़चनें, अप्रत्याशित भू-परिवर्तन आदि बताए गए हैं।
ये भी ऐसी वजहें हैं, जिनका सीधा संबंध सरकारी मशीनरी के काम करने के तरीके से जुड़ा है। अगर हर विभाग जनहित की परियोजनाओं को गंभीरता से लेकर अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करे तो ये अड़चनें आसानी से दूर की जा सकती हैं।
पिछले साल की एक रपट के मुताबिक भारतीय बुनियादी ढांचा क्षेत्र में परियोजना प्रबंधकों, सिविल इंजीनियरों, योजनाकारों, सर्वेक्षणकर्ताओं और सुरक्षा पेशेवरों सहित लगभग तीस लाख पेशेवरों की कमी है। अफसरशाही के पेंच कसने के साथ-साथ इस दिशा में भी ध्यान देने की सख्त आवश्यकता है। हालांकि परियोजनाओं को समय पर पूरा करने के इरादे से हर काम में देरी पर जुर्माने का प्रावधान किया जाता है, मगर भ्रष्टाचार के मकड़जाल में परियोजनाएं अपनी गति नहीं ले पातीं।
ठेकेदारों और अफसरों के गठजोड़ से देरी का कोई न कोई बहाना निकाल लिया जाता है। इस तरह परियोजनाएं महंगी होती जाती और सार्वजनिक धन की नाहक बर्बादी होती है। इसका कोई व्यावहारिक उपाय तलाशना जरूरी है।