मगर ऐसे मौके अक्सर आते रहते हैं, जब परंपराओं और कानूनों के बीच विवाद की स्थिति पैदा हो जाती है। नाबालिग बच्चों को उनके खिलाफ यौन अपराधों और शोषण से सुरक्षा देने के लिए पाक्सो कानून बनाया गया। जाहिर है कि बच्चे चाहे जिस भी धर्म के हों, उनके खिलाफ होने वाले अपराधों को इसी के तहत देखना और बरतना एक स्वाभाविक कानूनी प्रक्रिया है।

मगर कई बार सामुदायिक परंपराओं के लिहाज से भी इस प्रावधान की प्रासंगिकता को कसौटी पर रखने की कोशिश की जाती है। केरल उच्च न्यायालय ने एक मामले की सुनवाई के बाद इसी द्वंद्व पर स्पष्ट राय दी है, जिसमें किसी धर्म के तहत बनाए गए अलग नियम के मुकाबले पाक्सो कानून को न्याय का आधार बनाया गया है। अदालत की राय के मुताबिक, हालांकि मुसलिम पर्सनल ला में कानूनी तौर पर निर्धारित नाबालिगों की शादी भी मान्य है, इसके बावजूद पाक्सो कानून के तहत इसे अपराध माना जाएगा।

केरल हाई कोर्ट के ताजा फैसले को बेहद अहम माना जा रहा है, क्योंकि इसी तरह के मामलों में पहले तीन अन्य उच्च न्यायालयों ने अठारह साल से कम उम्र की लड़की की शादी के मामले को पर्सनल ला के तहत सही बता कर खारिज कर दिया था। पर केरल में एक सदस्यीय पीठ के सामने आए इस मामले में जांच के बाद एक अलग पहलू यह भी पाया गया कि नाबालिग लड़की के माता-पिता की जानकारी के बिना आरोपी ने उसे बहला-फुसला कर अगवा किया था। ऐसे में किसी भी धार्मिक कानून के दायरे में खुद भी इस पर विचार किया जाना चाहिए कि ऐसा विवाह कितना सही है।

इसके अलावा, पाक्सो कानून की व्याख्या करते हुए अदालत ने साफ किया कि यह बाल विवाह और यौन शोषण के खिलाफ है और इस हिसाब से शादी होने के बाद भी किसी नाबालिग से शारीरिक संबंध बनाना कानूनी अपराध है। निश्चित तौर पर अब बच्चों के खिलाफ होने वाले यौन अपराधों और शोषण के संदर्भ में पाक्सो कानून और किसी धर्म के विशेष नियमों के बीच की स्थिति को लेकर नई बहस खड़ी होगी। खासतौर पर इस तरह के मामलों में तीन अन्य अदालतों से जिस तरह से भिन्न फैसले आए थे, उसमें किसी एकरूप स्थिति की मांग पैदा होगी। लेकिन हिंदू, बौद्ध, सिख और ईसाई आदि से अलग मुसलमानों में शादी की न्यूनतम उम्र के संदर्भ में जो कानूनी व्यवस्था है, उसके मद्देनजर कई बार जटिल स्थिति बनती है।

इसके बावजूद यह सवाल उठेगा कि अगर कोई कानून किसी अपराध से सभी बच्चों को सुरक्षा मुहैया कराने की बात करता है तो क्या किसी बच्चे को इसलिए इसके प्रावधानों के संरक्षण से वंचित कर दिया जाएगा कि वह किसी खास धार्मिक पहचान से संबद्ध है! इस लिहाज से देखें तो केरल हाई कोर्ट का ताजा फैसला इस दिशा में एक नई व्यवस्था की जमीन बन सकता है, जिसमें बिना धार्मिक पहचान का खयाल किए सभी बच्चों को न्याय मुहैया कराने की बात होगी।

यह छिपा नहीं है कि पाक्सो कानून के प्रभावी होने के बावजूद मुसलिमों के अलावा अन्य धर्मों को मानने वाले समुदायों में भी बाल विवाह के मामले अक्सर सामने आते रहते हैं। खासतौर पर अक्षय तृतीया के मौके पर होने वाले बाल विवाह आज भी प्रशासन के लिए चुनौती बने रहते हैं। इसलिए सभी पक्षों को इस मसले पर सोच-समझ कर एक ठोस निष्कर्ष तक पहुंचने की जरूरत है, जिसमें नाबालिगों को हर स्तर के अपराध से सुरक्षित किया जा सके।