मध्यप्रदेश में एक व्यक्ति के आदिवासी युवक के ऊपर लघुशंका करने की तस्वीर आने के बाद स्वाभाविक ही समाज में जड़ें जमाकर बैठी मध्ययुगीन सोच को लेकर चिंता जताई जा रही है। हालांकि आरोपी को गिरफ्तार कर लिया गया है, उसके घर पर बुलडोजर चला कर अवैध निर्माण ढहा दिया गया है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने उस आदिवासी युवक के पांव पखारे और उससे माफी भी मांगी।

मगर यह सवाल अपनी जगह है कि क्यों समाज में इस तरह की मानसिकता जड़ें जमाए बैठी है कि तथाकथित ऊंची जाति के लोग मौका मिलते ही किसी दलित, किसी आदिवासी की अस्मिता को कुचलने, उसका मान मर्दन करने में तनिक संकोच नहीं करते। बताया जा रहा है कि आदिवासी युवक पर लघुशंका करने वाला आदमी मध्यप्रदेश के एक विधायक का प्रतिनिधि है।

जिस विधायक का प्रतिनिधि बताया जा रहा है, उस विधायक पर खुद भी दबंगई और आदिवासियों की जमीन हड़पने, अपनी आलोचना करने वाले पत्रकारों-संस्कृति कर्मियों-बुद्धिजीवियों के दमन आदि के अनेक आरोप लगते रहे हैं। जाहिर है, उनके प्रतिनिधि को इस तरह का कुकृत्य करने का साहस वहां से भी मिला होगा। सत्ता की ताकत मिलने के बाद इस तरह कानूनों की धज्जियां उड़ाने का यह अकेला उदाहरण भी नहीं है।

हालांकि दलितों, आदिवासियों के मानवाधिकारों, उनके मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करने के खिलाफ कड़े कानून हैं, मगर अक्सर सवर्ण कही जाने वाली जातियों के रसूखदार लोगों को उन कानूनों की धज्जियां उड़ाते देखा जाता है। यह केवल राजनीतिक ताकत हासिल कर चुके लोगों में नहीं, सामान्य लोगों में भी तथाकथित उच्चता के दंभ की वजह से प्रकट होता रहता है।

इसकी एक वजह यह भी है कि कानून का पालन कराने वालों में बहुसंख्यक वही लोग हैं, जो समाज की उच्च कही जाने वाली जातियों से संबंध रखते हैं। इसीलिए अक्सर दलितों, आदिवासियों के खिलाफ जब अत्याचार की कोई घटना होती है तो अक्सर थानों में उसकी प्राथमिकी दर्ज करने में टालमटोल किया जाता है।

अनेक बार बलात्कार की शिकार दलित महिलाओं को समझा-बुझा या डरा-धमका कर मामले को रफा-दफा करने का प्रयास किया जाता है। इस तरह एक भरोसा ऐसी जातियों के लोगों के मन में बना हुआ है कि अगर वे दलितों, आदिवासियों के साथ कुछ अमानवीय व्यवहार करते भी हैं, तो उन्हें कोई कठोर सजा नहीं मिलने वाली।

मध्यप्रदेश में जिस व्यक्ति को आदिवासी युवक पर लघुशंका करते देखा गया, वह भी समाज की इसी संकीर्ण सोच से अनुप्राणित है। इसलिए बेशक उसे गिरफ्तार कर लिया गया है, उसके घर के कुछ हिस्सों को बुलडोजर से गिरा दिया गया है, मगर इससे उसकी सोच भी बदल गई है, इसकी गारंटी नहीं दी जा सकती।

विचित्र है कि पढ़-लिख कर ओहदा हासिल कर लेने और राजनीतिक रसूख पा जाने के बाद भी जब लोगों की ऐसी मानसिकता नहीं बदलती, तो समाज में तथाकथित नीची कही जाने वाली जातियों के प्रति सदियों से जड़ें जमाई सोच को बदलना कितना आसान होगा। इस दिशा में राजनीतिक इच्छाशक्ति का सर्वथा अभाव दिखता है।

राजनीतिक दल वोट के लिए बड़े-बड़े सिद्धांतों की बातें करते हैं, मगर अफसोस कि वे अपने कार्यकर्ताओं में उसे व्यावहारिक रूप में नहीं उतार पाते। जब तक व्यावहारिक धरातल पर दलितों, आदिवासियों के प्रति सम्मान पैदा नहीं होगा, उनके साथ ऐसी घटनाएं नहीं रुकने वाली।