छत्तीसगढ़ में अब भी नक्सली हमलों को रोक पाना सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। मौका पाते ही नक्सली सशस्त्र बलों पर हमला कर देते हैं। केंद्र और राज्य सरकारें दावा करती रही हैं कि नक्सलियों पर काफी हद तक नकेल कसी जा चुकी है। मगर हकीकत यह है कि नक्सली सरे-बाजार किसी सुरक्षाकर्मी का कुल्हाड़ी से गला काट कर हत्या कर देते हैं। वहां के बीजापुर जिले में हुई घटना इसका उदाहरण है। भरे बाजार में नक्सलियों ने कुल्हाड़ी से छत्तीसगढ़ सशस्त्र बल के एक कंपनी कमांडर का गला काट दिया। इसके पहले कई बार वे बारूदी सुरंग बिछा कर या उनके शिविर और काफिले पर सीधे हमला कर बड़ी संख्या में सुरक्षा कर्मियों की हत्या कर चुके हैं।

पिछली सरकार ने उन्हें मुख्यधारा में लाने के लिए कई योजनाएं चलाईं। वनोपज और हस्तशिल्प की खरीद की दरें तय कर दी गईं, ताकि आदिवासी समूहों को आर्थिक संबल मिल सके और वे नक्सलियों के प्रभाव से मुक्त हो सकें। मगर वे योजनाएं पूरी तरह कारगर नहीं हो पाईं। अब स्थिति यह है कि कुल्हाड़ी से भी सुरक्षाकर्मियों की हत्या कर आसानी से गायब हो जाते हैं। जाहिर है, उन्हें स्थानीय लोगों का समर्थन हासिल है।

छत्तीसगढ़ में नक्सली समस्या बहुत पुरानी है। उससे पार पाने के लिए कई तरीके आजमाए गए। ज्यादातर मामलों में उनके दमन का रास्ता ही अख्तियार किया गया। उनसे बातचीत के जो भी प्रयास हुए, वे नाकाफी साबित हुए। ज्यादातर नक्सली हमलों में देखा गया है कि उनके पास अत्याधुनिक हथियार और सूचना संसाधन पहुंच चुके हैं। वे सुरक्षाबलों की गतिविधियों और काफिले वगैरह का ठीक-ठीक पता लगा लेते और बारूदी सुरंग बिछा कर हमला कर देते हैं। यह समझना मुश्किल है कि उनके पास इतने हथियार और साजो-सामान पहुंच कैसे रहे हैं।

उन रास्तों पर सुरक्षाबलों की नजर जा नहीं पा रही, जिनके जरिए उन तक साजो-सामान पहुंच रहा है। हालांकि इसके कुछ तथ्य उजागर हैं। जबरन वसूली और मादक पदार्थों की बिक्री से वे अपना वित्तीय ढांचा मजबूत कर पाने में सफल हो जाते हैं। मगर ड्रोन, हेलीकाप्टर आदि का इस्तेमाल होने के बावजूद वे कैसे सुरक्षा इंतजामों को चकमा दे पा रहे हैं, कैसे स्थानीय लोगों का उन्हें समर्थन लगातार मिल पा रहा है, इस पर प्रशासन को गंभीरता से सोचने की जरूरत है।

सबसे अहम बात कि नक्सली आखिर क्यों व्यवस्था के लिए चुनौती बने हुए हैं। उनकी मांगों को सुनने और उनका कोई व्यावहारिक रास्ता निकालने का प्रयास किया जाता, तो शायद यह समस्या इतने दिन तक न बनी रहती। दरअसल, आदिवासी समुदाय के भीतर यह भय लगातार बना हुआ है कि उनकी जमीन और जंगल हड़प कर सरकार खनिज निकालने वाली कंपनियों को सौंप देना चाहती है। ऐसा अनेक जगहों पर हो चुका है। विकास के नाम पर हर सरकार का प्रयास होता है कि खनिज वाली जगहों का दोहन किया जाए।

मगर आदिवासी इसके लिए तैयार नहीं हैं। उनके इलाकों में स्कूल, चिकित्सालय, सड़क-बिजली-पानी की सुविधा पहुंचाई गई, मगर इससे उनका मन नहीं बदला है, तो इसके लिए दूसरे रास्तों की तलाश जरूरी है। नाराज आदिवासी ही प्राय: नक्सली समूहों को पनाह देते देखे जाते हैं। हालांकि छत्तीसगढ़ में नक्सलवाद अपने सिद्धांत से काफी भटका चुका है, मगर वह चुनौती बना हुआ है, यह सरकारों के लिए चिंता का विषय होना चाहिए।