जनप्रतिनिधियों के वेतन, भत्तों और पेंशन में बढ़ोतरी को लेकर हर बार सवाल उठते हैं, इस बार भी उठ रहे हैं। सांसदों के वेतन में चौबीस फीसद की बढ़ोतरी की गई है। इसी तरह हर भत्ते और पेंशन में बढ़ोतरी हुई है। कहा जा रहा है कि महंगाई दर के मद्देनजर इस बढ़ोतरी का फैसला किया गया। वेतन, भत्तों और पेंशन में वृद्धि का सूत्र ही महंगाई के मद्देनजर तय किया गया था, इस लिहाज से यह बढ़ोतरी गलत नहीं कही जा सकती। मगर सवाल है कि क्या आम लोगों की आमदनी में भी इसी अनुपात में वृद्धि हो सकी है। महंगाई पर काबू पाने की तमाम कोशिशों के बावजूद लंबे समय से इसका स्तर भारतीय रिजर्व बैंक के तय चार फीसद के मानक से ऊपर बना हुआ है।

खाद्य वस्तुओं, फल-सब्जियों, रोजमर्रा उपयोग की वस्तुओं की कीमतें आम लोगों की क्षमता से बाहर हैं। उपभोक्ता सूचकांक के आधार पर स्पष्ट है कि पिछले दस वर्षों में लोगों की आमदनी नहीं बढ़ी है। इस तरह जनप्रतिनिधियों और आम लोगों की आय में असमानता काफी बढ़ गई है। क्योंकि सांसदों, विधायकों को उस तरह केवल अपने वेतन पर गुजारा नहीं करना पड़ता, जिस तरह आम कर्मचारियों, वेतनभोगी लोगों को करना पड़ता है। इसलिए इस बढ़ोतरी को लेकर स्वाभाविक ही सवाल उठ रहे हैं।

सांसदों को मिलने वाली पेंशन पर पर भी उठते रहे हैं सवाल

यह सवाल लंबे समय से पूछा जाता रहा है कि जनप्रतिनिधियों को खुद अपने वेतन और भत्तों में बढ़ोतरी करने का अधिकार क्यों होना चाहिए। इसके लिए भी एक स्वतंत्र समिति क्यों नहीं गठित की जाती। फिर, उन्हें मिलने वाली पेंशन पर पर भी सवाल उठते रहे हैं कि जब एक सामान्य कर्मचारी को लंबी सेवा के बाद अब पेंशन की कोई योजना नहीं रह गई है या बहुत मामूली है, तो फिर एक बार चुनाव जीत जाने भर से किसी जनप्रतिनिधि को जीवन भर पेंशन पाने का हक क्यों होना चाहिए।

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उस पेंशन की राशि भी एक आम वेतनभोगी से काफी अधिक होती है। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जनप्रतिनिधियों के खर्चे कई तरह के होते हैं और अगर महंगाई के अनुरूप उनके वेतन-भत्तों में बढ़ोतरी न की जाए, तो उन्हें मुश्किलों का सामना करना पड़ सकता है। मगर उन्हें मिलने वाले भत्ते इतने हैं कि शायद ही किसी को मुश्किल आती हो। मुफ्त का आवास, वाहन, यात्रा भत्ता, क्षेत्र दौरे के लिए भत्ता, कार्यालय खर्च का भत्ता, संसदीय सत्र के दौरान का भत्ता आदि मिलता है।

महंगाई की तुलना में होनी चाहिए आय में बढ़ोतरी

एक सवाल यह भी उठता रहा है कि जब राजनेता समाजसेवा का संकल्प लेकर चुनाव मैदान में उतरते हैं, तो उन्हें वेतन-भत्तों आदि का लोभ होना ही क्यों चाहिए। हर वर्ष सांसदों को मिलने वाले वेतन और भत्तों पर भारी रकम खर्च होती है, जिससे सार्वजनिक खजाने पर बोझ बढ़ता है। वह सारा खर्च आम लोगों की कमाई से ही जाता है। तो, यह पूछा जाना स्वाभाविक है कि आमजन की चिंता का दावा करने वाले जनप्रतिनिधि अपने ऊपर होने वाले सरकारी खर्च में कटौती पर विचार क्यों नहीं कर पाते।

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हमारे देश में जनप्रतिनिधियों पर कई देशों की तुलना में बहुत अधिक खर्च होता है, इसलिए भी यह बढ़ोतरी लोगों को खटकती है। महंगाई की तुलना में आय में बढ़ोतरी होनी ही चाहिए, लेकिन यह सिद्धांत जब केवल कुछ लोगों तक सीमित कर दिया जाता है, तो अंगुलियां उठती हैं। इस पर विचार आखिर कौन करेगा!