पिछले कुछ समय से ऐसा लगता है कि जो नेता आम लोगों के समर्थन से राजनीति, सत्ता और तंत्र में अपनी जगह बनाते हैं, वे बाद में किसी समस्या के लिए जनता को ही कठघरे में खड़ा करना शुरू कर देते हैं। आए दिन अलग-अलग पार्टियों से जुड़े नेता बिना सोचे-समझे ऐसे बयान दे देते हैं, जो कई लिहाज से आपत्तिजनक होता है। पद या सत्ता का सुरक्षित घेरा मिल जाने के बाद आम लोगों की अहमियत को नकार देना और दुखी या अपमानित करने वाले बयान देना एक बड़ी राजनीतिक विडंबना है।
गौरतलब है कि मध्यप्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार में पंचायत एवं ग्रामीण विकास मंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान कहा कि लोगों को मांगने की आदत पड़ गई है, अब तो वे सरकार से भीख मांगने के भी आदी होने लगे हैं। खबरों के मुताबिक, उन्होंने यह भी कहा कि हमेशा लेने के बजाय देने की मानसिकता विकसित करें।
बहस के घेरे में मुफ्त की सौगातों की होड़
संबंधित मंत्री का इस तरह का बयान वैसे समय में आया है, जब देश भर में सरकारों द्वारा जनता को दी जाने वाली मुफ्त की सौगातों की होड़ बहस के घेरे में है। ऐसे में सवाल उठ रहे हैं कि चुनावी जीत हासिल करने के लिए सरकार बनने पर कई तरह की सुविधाएं और सेवाएं मुफ्त मुहैया कराने का आखिर क्या औचित्य है!
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सवाल है कि जिस नेता को मुफ्त सुविधाओं पर आपत्ति है, क्या वे देश की अन्य पार्टियों के साथ-साथ अपनी पार्टी के सामने ईमानदारी से यह सवाल रख सकेंगे कि वे चुनावों में जीत के लिए मुफ्त की सौगात की लोकलुभावन घोषणाएं क्यों करती हैं? जनता आज अगर सरकारों की ओर से कोई चीज या सेवा मुफ्त में मिलने की उम्मीद करने लगी है, तो इसके पीछे मुख्य कारण यही है कि बीते कुछ वर्षों से चुनावी जीत के लिए नेताओं के मुफ्त की सौगात देने के वादे हैं।
सक्षम बनाने की वकालत करने के बजाय मुफ्त सुविधाएं
ऐसे में केवल जनता पर सवाल उठाने के बजाय जरूरत है कि नेता अपनी और पार्टियों की ओर झांकें, जो जनता को रोजगार देने या उन्हें सक्षम बनाने की वकालत करने के बजाय मुफ्त सुविधाएं और तोहफे देने की होड़ में लगी हैं।