देश में एक ओर चिकित्सकों की कमी बड़ी समस्या बनी हुई है, तो दूसरी ओर चिकित्सा पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाती हैं। यह मुद्दा अक्सर अदालतों में उठता रहा है। दाखिले से वंचित छात्र भी गुहार लगाते रहे हैं। अब शीर्ष अदालत को स्पष्ट रूप से कहना पड़ा है कि मेडिकल पाठ्यक्रमों में सीटें खाली नहीं रह सकतीं। इस बार ‘सुपर स्पेशियलिटी’ संकाय में सीटें खाली रह जाने का मामला सामने आया है।

सवाल है कि ऐसी नौबत हर वर्ष क्यों आती है। पिछले वर्ष भी शीर्ष अदालत ने इस पर चिंता जताई थी। तब केंद्र ने हल निकालने की कोशिश की थी और हितधारकों वाली समिति भी बनाई थी। मगर इसका क्या नतीजा निकला? क्या ‘नेशनल मेडिकल काउंसिल’ की दाखिला नीति में कोई खामी है। प्रति वर्ष चिकित्सा पाठ्यक्रमों में दाखिले के लिए बड़ी संख्या में छात्र प्रवेश परीक्षाएं देते हैं।

काउंसलिंग के बाद भी मेडिकल सीट रह जाती है खाली

मगर कई दौर की काउंसलिंग के बाद भी सीटें खाली रह जाती हैं। ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि क्या विद्यालयों में गुणवत्ता आधारित शिक्षा विद्यार्थियों को नहीं मिल रही। क्या हमारी शिक्षा व्यवस्था की बुनियाद में कोई कमी रह गई है? इस पर विचार की आवश्यकता है। यह दुखद है कि विद्यालयों में उतनी योग्य प्रतिभाएं भविष्य के लिए तैयार नहीं हो पा रहीं, जितनी देश को जरूरत है।

लाखों बच्चे आज भी स्कूली शिक्षा से बाहर, कंप्यूटर और इंटरनेट आधे विद्यालयों में ही उपलब्ध

पिछले साल भी चिकित्सा पाठ्यक्रम में कई सीटें खाली रह गई थीं। यह स्थिति एक तरह से इससे संबंधित नीतियों पर सवालिया निशान है। दूसरी ओर, निजी मेडिकल कालेज जिस तरह से बड़ी रकम लेकर अपनी सीटें भरते हैं, उससे कई गरीब प्रतिभाशाली विद्यार्थी अवसर से वंचित रह जाते हैं। बहुत सारे अभिभावक ऊंची फीस की वजह से अपने बच्चों की मेडिकल की पढ़ाई नहीं करा पाते।

सीटें खाली रह जाना सरकार की बड़ी विफलता

इसके अलावा, कायदे से देखें तो चिकित्सा पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाना इस तथ्य का भी सूचक है कि स्कूल से लेकर कालेजों तक में पढ़ाई-लिखाई की गुणवत्ता इस स्तर की नहीं है कि वहां से योग्य विद्यार्थी तैयार होकर इसमें दाखिले की कोशिश करें। स्वास्थ्य की समग्र तस्वीर को देखते हुए देश को सुयोग्य और विशेषज्ञ चिकित्सकों की बेहद जरूरत है। ऐसे में चिकित्सा पाठ्यक्रमों में सीटें खाली रह जाना सरकार की बड़ी विफलता है।