मनोज कुमार हिंदी सिनेमा के उन चंद अभिनेताओं में थे, जिन्होंने बंटवारे की त्रासदी को भोगा था। पाकिस्तान और चीन से संघर्ष के बाद निराश भारतीयों के मन में देशभक्ति की अलख जगाने का बीड़ा उठाने वाले वे अकेले कलाकार थे। उस दौर में जब भारत अपने बूते खड़ा हो रहा था, तब उन्होंने नागरिकों के मन में देश की संस्कृति और उसकी महानता पर गर्व करना सिखाया, जो आज के राष्ट्रवाद से कहीं बड़ा फलक था। उनकी फिल्मों में देशभक्ति का जज्बा उस दौर के करोड़ों दर्शकों के मन में उतरता चला गया।
शायद इसीलिए कभी-कभी मनोज कुमार कहते भी थे कि देशभक्ति थोपी नहीं जानी चाहिए। दरअसल, भारतीय नागरिकों में जिस तरह की देशभक्ति वे देखना चाहते थे, उसे उन्होंने बखूबी अभिव्यक्त किया और पूरब से लेकर पश्चिम तक उन्होंने भारत की ही बात सुनाई। इस तरह एक कलाकार के रूप में राष्ट्रीय चेतना की नींव मजबूत की और देशभक्ति की धारा बहाई। उनकी फिल्म ‘शहीद’ को कौन भूल सकता है। मनोज कुमार जब भगत सिंह की मां से मिले, तो उन्होंने कहा था कि तुम मेरे बेटे जैसे लगते हो।
मनोज कुमार की फिल्मों में थी देशभक्ति की व्यापक भावना
मनोज कुमार की फिल्मों में देशभक्ति की भावना व्यापक थी। वह एक राष्ट्र तक सीमित नहीं थी। उसमें करोड़ों नागरिकों के दुुख-सुख और उनकी भावनाएं भी जुड़ी थीं। ‘उपकार’ और ‘पूरब पश्चिम’, फिर ‘क्रांति’ जैसी फिल्मों ने न केवल देशवासियों, बल्कि विदेश में रहने वाले प्रवासी भारतीयों को भी झकझोर कर रख दिया था। निश्चित रूप से उनकी फिल्मों में लादी गई देशभक्ति नहीं थी। न ही मनोज कुमार उनके जरिए अपना कोई विचार या दृष्टिकोण किसी पर थोप रहे थे।
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उनका एकमात्र लक्ष्य था, देशभक्ति जगाना और लोगों के मन में राष्ट्र के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा पैदा करना। इसमें वे काफी हद तक कामयाब रहे। उन्होंने अपनी फिल्मों के माध्यम से सिर्फ देशभक्ति की बात नहीं की, गरीबी, बेरोजगारी, भूख और भ्रष्टाचार से बदहाली का भी चेहरा दिखाया। बाढ़ और सूखे से हलकान किसानों और कामगारों की दुर्दशा की भी बात की। इस तरह मनोज कुमार की फिल्मों में पूरे भारत की तस्वीर थी, एक राष्ट्रीय भावना थी।