मणिपुर की हिंसा अब एक ऐसे दौर में प्रवेश कर गई लगती है, जहां एक ही समुदाय के लोग एक-दूसरे के दुश्मन बनते जा रहे हैं। तेंगनौपाल जिले में उग्रवादियों और एक ही समुदाय के ग्रामीण स्वयंसेवकों के बीच हुई गोलीबारी और उसमें चार लोगों की मौत इसका उदाहरण है। वहां यूनाइटेड कुकी लिबरेशन फ्रंट यानी यूकेएलएफ और कुकी समुदाय के ही ग्रामीणों के बीच गोलीबारी हो गई। घटना के बाद ग्रामीणों ने यूकेएलएफ प्रमुख का घर जला डाला। प्रशासन का कहना है कि यह उगाही पर नियंत्रण करने की कोशिश में हुआ टकराव हो सकता है। सच्चाई जो हो, पर यह बहुत चिंताजनक स्थिति है।
कुकी और मैतेई के बीच विवाद खूनी संघर्ष में बदल गया था
करीब सवा साल पहले मैतेई समुदाय को भी जनजाति की श्रेणी में शामिल करने को लेकर उभरा मतभेद और आक्रोश कुकी और मैतेई के बीच खूनी संघर्ष में परिणत हो गया। राज्य सरकार की लापरवाही या रणनीतिक चुप्पी की वजह से यह समस्या लगातार सुलगती रही। आज स्थिति यह है कि न तो कुकी इलाकों में मैतेई प्रवेश कर पाते हैं और न मैतेई इलाकों में कुकी। कभी साथ रहने वाले दोनों समुदाय के लोग एक-दूसरे की जान के दुश्मन बने बैठे हैं। अब अगर आपस में ही संघर्ष की नई स्थितियां उभरने लगी हैं, तो स्थिति बहुत गंभीर मानी जानी चाहिए।
मणिपुर की हिंसा में अब तक दो सौ से ज्यादा लोग मारे जा चुके हैं, साठ हजार से अधिक लोग अपने घरों से विस्थापित होकर राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं, ग्यारह हजार से अधिक घर जला दिए गए हैं। न तो बच्चों की पढ़ाई-लिखाई हो पा रही है, न लोग अपने काम-धंधे पर लौट पा रहे हैं। ग्रामीण इलाकों के लोगों ने खुद अपने सुरक्षा दस्ते बना लिए हैं। वे बारी-बारी से पहरा देते हैं। इन स्थितियों में उग्रवादी संगठनों ने भी अपने पांव पसार लिए हैं।
जाहिर है, उग्रवादी संगठनों का खर्च उगाही से ही निकल पाता है। ऐसे में अगर ग्रामीण समुदायों से उन्हें प्रतिकार मिल रहा है, तो इसकी असल वजहें जानने का प्रयास होना चाहिए। मगर सरकार को शायद इसका अवकाश नहीं। पिछले दिनों वहां के मुख्यमंत्री ने मणिपुर की स्थिति पर बयान तो दिया था, मगर वे इन हालात से निपटने के लिए क्या कर रहे हैं, उसकी कोई भरोसेमंद रणनीति उनके पास नहीं है। सरकार को यह समझने की जरूरत है कि हिंसाग्रस्त इलाकों में सरकार और सुरक्षाबलों की लापरवाही या कमजोरी का नतीजा चरमपंथ के रूप में प्रकट होता है।
ऐसा कतई नहीं माना जा सकता कि अगर केंद्र और राज्य सरकारें संजीदा होतीं, तो मणिपुर की हिंसा अब तक रुक न गई होती। मगर शुरू से ही इसे लेकर शिथिलता बरती गई, बल्कि कई ऐसे भी उदाहरण मौजूद हैं जब सत्तापक्ष की तरफ से उपद्रवियों को उकसावा मिला। शस्त्रागार से हथियार लूट लिए गए, पुलिस के घेरे में स्त्रियों का बलात्कार हुआ, राजनेताओं तक के घरों को निशाना बनाया गया। गोलीबारी की ताजा घटना के बीच एक पूर्व विधायक के घर के पास रखा बम फटने से उनकी पत्नी की मौत हो गई। आखिर सरकार राज्य में इस तरह दहशत का माहौल बनाए रख कर क्या हासिल करना चाहती है। अगर इससे उसके कुछ राजनीतिक हित सध भी जाएं, तो लोगों के बीच सद्भाव की गहरी खाई को पाटने में वर्षों लगेंगे। लोगों के जख्म भरने और उनका दर्द दूर करने में सरकार शायद ही कभी कामयाब हो पाएगी!