मणिपुर में कुछ दिनों की शांति के बाद फिर से हिंसा भड़क उठी है। जगह-जगह विरोध प्रदर्शन और आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। सड़कों पर सुरक्षा बलों का सख्त पहरा है। कई इलाकों में निषेधाज्ञा लागू है और इंटरनेट सेवाएं निलंबित कर दी गई हैं। इससे पहले भी राज्य को कई मर्तबा हिंसा की त्रासदी झेलनी पड़ी है। इस बार हिंसा का प्रत्यक्ष कारण भले ही मैतेई समुदाय के एक नेता समेत पांच लोगों की गिरफ्तारी है, लेकिन इसके तार वर्ष 2023 में हुई जातीय हिंसा से ही जुड़े हुए हैं।

सवाल है कि जातीय आधार पर लोगों के गुस्से का ज्वार आखिर शांत क्यों नहीं हो रहा है? लोगों को भावनात्मक रूप से भड़काने के पीछे कौन है? ऐसी क्या वजह है कि लोग किसी सामान्य घटना को भी समुदाय से जोड़ लेते हैं और सड़कों पर उतर कर उग्र व्यवहार करने लगते हैं?

हिंसा की वजह से ही एन बीरेन सिंह को गंवानी पड़ी थी मुख्यमंत्री की कुर्सी

मणिपुर में वर्ष 2023 से जातीय संघर्ष चल रहा है। तब से हिंसा में कई लोगों की जान जा चुकी है और मैतेई और कुकी दोनों ही समुदायों के हजारों लोगों को विस्थापन का दर्द भी झेलना पड़ा है। हिंसा का सिलसिला जारी रहने की वजह से एन बीरेन सिंह को इस साल फरवरी में मुख्यमंत्री पद गंवाना पड़ा था। उसके बाद से यहां राष्ट्रपति शासन लागू है। तब से राज्य में हिंसा की कोई बड़ी घटना सामने नहीं आई। माना जा रहा था कि अब हालत सामान्य हो रहे हैं। मगर राज्य के सिर पर शांति का यह सेहरा ज्यादा दिन तक नहीं टिक पाया।

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दरअसल, सीबीआइ ने गत रविवार को मैतेई संगठन अरंमबाई तेंगोल (एटी) के सदस्य कानन सिंह को गिरफ्तार किया था। इसके अलावा चार अन्य लोगों की भी गिरफ्तारी हुई। इन सब पर वर्ष 2023 में हुई हिंसा से संबंधित विभिन्न आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने का आरोप है। जांच एजंसी का कहना है कि आरोपी कानन सिंह मणिपुर पुलिस में हेड कांस्टेबल था, लेकिन उसे मार्च 2025 को हथियारों की तस्करी सहित विभिन्न आपराधिक गतिविधियों में संलिप्त होने के कारण बर्खास्त कर दिया गया था।

किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती हिंसा

सीबीआइ की इस कार्रवाई के बाद राज्य के विभिन्न हिस्सों में हिंसक प्रदर्शन शुरू हो गए। इस पूरे घटनाक्रम में गौर करने वाली बात यह है कि अगर किसी व्यक्ति पर हिंसक एवं आपराधिक घटनाओं में संलिप्त होने के आरोप में कार्रवाई होती है, तो इसे समुदाय विशेष से जोड़ कर क्यों देखा जा रहा है। जांच के जरिए इस बात का पता लगाने की जरूरत है कि कहीं कोई लोगों की भावनाओं को भड़का कर अपने निजी स्वार्थ हासिल करने की कोशिश तो नहीं कर रहा है? साथ ही प्रशासनिक अमले और जनप्रतिनिधियों की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वे जन आक्रोश को शांत करने के लिए संबंधित लोगों के साथ तत्काल संवाद कायम करें।

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प्रदर्शनकारियों को भी यह बात समझनी होगी कि हिंसा किसी भी समस्या का समाधान नहीं हो सकती। अगर उनके नेता पर लगे आरोपों को लेकर किसी तरह का संदेह है, तो न्यायपालिका पर विश्वास रखना चाहिए। सड़कों पर उत्पात मचाने और सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने से कुछ हासिल नहीं होगा।