मणिपुर में सशस्त्रबल विशेषाधिकार कानून यानी अफस्पा को अगले छह महीने के लिए बढ़ाए जाने के फैसले से एक बार फिर स्पष्ट हुआ है कि सरकार वहां व्याप्त हिंसा का राजनीतिक हल निकालने के बजाय बल प्रयोग पर ज्यादा भरोसा कर रही है। मणिपुर के मैतेई बहुल उन्नीस जिलों को छोड़ कर सभी पहाड़ी इलाकों में अफस्पा का अवधि विस्तार कर दिया गया है।
इसके पीछे तर्क है कि वहां सक्रिय आतंकी समूहों के विरोध प्रदर्शनों आदि में घुस कर अशांति फैलाने का खतरा बढ़ गया है। पिछले दिनों सशस्त्र बलों ने यह भी कहा था कि वहां के आतंकी समूह सशस्त्रबलों की वर्दी और वाहनों जैसे वाहन तैयार कर रहे हैं। कई हिंसक मामलों में चरमपंथियों के शामिल होने के पुख्ता सबूत भी हाथ लग चुके हैं। ऐसे में एहतियात के तौर पर अफस्पा को विस्तार दिया गया है।
इस तरह सेना किसी को भी शक के आधार पर गिरफ्तार कर सकती है, किसी भी घर की तलाशी ले सकती और चेतावनी देकर गोली मार सकती है। माना जा रहा है कि इस सख्ती का दहशतगर्दों पर असर होगा और हिंसा की घटनाओं में कमी आएगी। मगर वहां के नागरिक समाज पर इसका कैसा प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा, शायद इसका आकलन नहीं किया गया है।
कुछ महीने पहले तक केंद्र सरकार पूर्वोत्तर राज्यों में लागू अफस्पा को चरणबद्ध तरीके से हटाने के पक्ष में थी। कुछ मौकों पर इसका श्रेय भी लेने का प्रयास किया गया। मगर अब जब मणिपुर में इसकी अवधि बढ़ाने का फैसला किया गया है, तो स्वाभाविक रूप से केंद्र और राज्य सरकार के इरादे पर सवाल उठने शुरू हो गए हैं। दरअसल, इस कानून के लागू रहने से नागरिक समाज को हमेशा एक भय में जीवन गुजारना पड़ता है।
कश्मीर में अफस्पा की वजह से मानवाधिकार उल्लंघन के अनेक गंभीर आरोप सामने आए थे। मणिपुर में भी सशस्त्रबलों की कार्रवाइयों को लेकर लगातार सवाल उठते रहे हैं। इसलिए जहां भी अफस्पा लागू है, वहां के नागरिक इसे हटाने की मांग करते रहे हैं। इसे हटाने को लेकर इरोम चानू शर्मिला लंबे समय तक धरने पर बैठी रहीं।
वहां की महिलाओं ने निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था। इसलिए जब केंद्र में भाजपा की अगुआई वाली राजग की सरकार आई तो उसने चरणबद्ध तरीके से अफस्पा हटाने की घोषणा की। पूर्वोत्तर के कई हिस्सों से इसे हटाया भी गया। मगर मणिपुर के मामले में वर्तमान स्थितियों के मद्देनजर कदम वापस खींचने पड़े हैं।
मणिपुर का मामला राजनीतिक है। अगर वहां की सरकार ने गंभीरता दिखाई होती और केंद्र ने उसे अपेक्षित सहयोग दिया और लगातार उस पर दबाव बनाए रखा होता तो इसका समाधान पहले ही हो गया होता। मगर इस घटनाक्रम में राज्य सरकार का पक्षपातपूर्ण रवैया दिखता रहा। केंद्र ने भी अपेक्षित कदम नहीं उठाए। इसका नतीजा यह हुआ कि मैतेई और कुकी समुदाय एक-दूसरे के खून के प्यासे बने हुए हैं।
सर्वोच्च न्यायालय को इस मामले में स्वत: संज्ञान लेकर निगरानी समिति गठित करनी पड़ी। उसके बावजूद वहां रह-रह कर हिंसा भड़क उठती है। करीब पांच महीने होने आ रहे हैं, मगर पुलिस और सशस्त्रबलों की कड़ाई काम नहीं आ पा रही है। ऐसे में अफस्पा की अवधि बढ़ा देने से इसका हल निकाला जा सकेगा, दावा नहीं किया जा सकता। जब तक इस समस्या के समाधान के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति नहीं दिखाई देगी, तब तक स्थिति में किसी प्रकार के सुधार की गुंजाइश शायद ही बन पाए।