मणिपुर में हिंसा की शुरुआत के करीब छह महीने बाद भी अगर राज्य सरकार वहां शांति कायम नहीं कर सकी है तो यह उसकी कार्यक्षमता पर ही सवाल है। मगर ज्यादा अफसोस की बात यह है कि हिंसा के शिकार लोगों को राहत मुहैया कराने के मामले में भी समय पर जरूरी कदम नहीं उठाए गए और इसके लिए देश की दूसरी संस्थाओं को याद दिलाना पड़ रहा है।
मानवाधिकार आयोग और पीड़ितों को मुआवजा
गौरतलब है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मणिपुर सरकार से राज्य में मई महीने में शुरू हुए जातीय संघर्षों में मारे गए सभी लोगों के परिजनों को दस-दस लाख रुपए मुआवजा देने को कहा है। आयोग ने यह आदेश भी दिया कि हिंसा में क्षतिग्रस्त घरों का मूल्यांकन किया जाए और छह सप्ताह के भीतर प्रत्येक पीड़ित को दस लाख रुपए मुआवजा दिया जाए। यानी जो काम सरकार को अपनी ओर से करना चाहिए था, उसे लेकर भी वह सजग नहीं है। क्या सरकार के इसी उदासीन रवैये की वजह से राज्य में आज भी बिगड़े हालात पर काबू पाना मुश्किल नहीं बना हुआ है?
राज्य में हिंसा की घटनाएं और शांति के प्रयास
सरकार के काम करने की शैली का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि वहां दो समुदायों के बीच शुरू हुए टकराव को एक लंबा वक्त गुजर जाने के बावजूद हालात पर काबू पाने के लिए कोई ठोस नतीजा सामने नहीं आ सका है। अब भी वहां हिंसा और आगजनी की घटनाएं हो रही हैं। इस पहलू पर मानवाधिकार आयोग ने मणिपुर के कुछ हिस्सों में हिंसा जारी रहने पर चिंता जाहिर करते हुए राज्य सरकार से हालात सामान्य करने के लिए रूपरेखा तैयार करने को कहा है।
यह सरकार के लिए शर्मिंदगी का विषय होना चाहिए कि वह राज्य में हिंसा की वजहें पहचान कर उसका हल निकालने के लिए जरूरी कदम उठाने में नाकाम रही, फिर बाद में जब कुकी और मैतेई समुदाय के बीच हिंसा ने व्यापक शक्ल ले ली, तब भी उसे रोकने को लेकर कोई ऐसी पहल नहीं दिखी, जिसे दूरदर्शी कहा जा सके। नतीजा यह हुआ कि राज्य में पुलिस से लेकर सेना तक की तैनाती के बावजूद वहां हिंसा और अराजकता बनी हुई है।
गृह मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट की कोशिशें भी नाकाम
हालांकि मैतेई समुदाय को जनजाति श्रेणी में शामिल करने के मसले पर वहां विरोध का जो ज्वार उठा, उसमें यह साफ दिख रहा था कि यह कैसा रूप ले सकता है। मगर इतने संवेदनशील मुद्दे को भी सरकार ने शायद तात्कालिक प्रतिक्रिया मान लिया था। इसी उदासीनता का नतीजा था कि समूचे राज्य में अराजकता का माहौल बन गया और उसके बाद स्थिति पर नियंत्रण करना सरकार के लिए मुश्किल हो गया। केंद्रीय गृह मंत्रालय और सुप्रीम कोर्ट की ओर से भी शांति और निगरानी समितियां बना कर हल निकालने की कोशिश की गई, मगर उसका कोई ठोस नतीजा नहीं निकला।
जबकि इस मसले का अकेला समाधान कुकी और मैतेई समुदायों के बीच संवाद और उभरे सवालों पर सहमति कायम करना है। मगर हिंसा से प्रभावित इलाकों में न केवल कार्रवाई को लेकर शिथिलता बरती गई, बल्कि सरकार और पुलिस पर पक्षपात करने के भी आरोप लगे। मानवाधिकार आयोग को एक निश्चित तारीख तक एक सौ अस्सी लोगों के मारे जाने की सूचना दी गई थी, लेकिन ऐसे सिर्फ तिरानबे लोगों के परिजनों को ही दस लाख रुपए मुआवजा दिया गया। इससे सरकार की कार्यशैली और उसकी मंशा पर सवाल उठते हैं कि क्या वह राज्य में हिंसा को पूरी तरह रोकने और पीड़ितों को राहत मुहैया कराने को लेकर गंभीर है?