मणिपुर के मुख्यमंत्री एन बीरेन सिंह ने आखिरकार इस्तीफा दे दिया। कुकी समुदाय की संस्था आइटीएलएफ का कहना है कि बीरेन सिंह को लगने लगा था कि अविश्वास प्रस्ताव में वे हार जाएंगे, फिर उनकी बातचीत के एक आडियो अंश को सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता से लेते हुए जांच के लिए भेज दिया है। ऐसे में भाजपा को भी उन्हें बचाना मुश्किल लग रहा था। इसलिए बीरेन सिंह ने इस्तीफा दिया। इसके पीछे हकीकत जो हो, पर मणिपुर मामले को संभालने में बीरेन सिंह पूरी तरह विफल रहे और विपक्ष लगातार उनका इस्तीफा मांग रहा था।

करीब इक्कीस महीने से वहां हिंसा का दौर चल रहा है, मगर केंद्रीय नेतृत्व ने बीरेन सिंह पर नैतिक जवाबदेही का कोई दबाव नहीं बनाया। वे न केवल अपने पद पर बने रहे, बल्कि कई मौकों पर मामले को छिपाने की कोशिश भी करते देखे गए। आइटीएलएफ का कहना है कि बीरेन सिंह के जाने या रहने से उनकी मांगों पर कोई असर नहीं पड़ेगा। वे अलग प्रशासन की मांग उठाते रहेंगे। बीरेन सिंह के इस्तीफे से जरूर उन लोगों ने कुछ राहत अनुभव की होगी, जो उनके ढीलेढाले और पक्षपातपूर्ण रवैए से नाखुश थे, पर वास्तव में यह मणिपुर की स्थिति में बेहतरी का संकेत हो सकता है, फिलहाल दावा करना मुश्किल है।

एक मामूली गलतफहमी की वजह से मणिपुर में हिंसा भड़क उठी थी। वहां के उच्च न्यायालय ने सलाह दी थी कि मैतेई लोगों को भी आदिवासी समुदाय का दर्जा दिया जा सकता है। इस पर कुकी समुदाय के लोग आक्रोशित हो उठे थे। सरकार से अपेक्षा की जाती थी कि लोगों को यह समझाए कि वह उच्च न्यायालय की सलाह पर कोई ऐसा कदम नहीं उठाने जा रही, जिससे कुकी और दूसरे आदिवासी समुदायों के हितों को चोट पहुंचती है। मगर बीरेन सिंह सरकार ने शुरू में दमन के जरिए हिंसा को रोकने का प्रयास किया, फिर मैतेई समुदाय के प्रति नरम रुख अख्तियार करती देखी जाने लगी थी।

प्रशासनिक शिथिलता का आलम यह था कि उपद्रवी, शस्त्रागारों में घुस कर हथियार और गोली-बारूद लूट ले गए। ऐसा कई बार हुआ। पुलिस के सामने कुछ महिलाओं से बदसलूकी की गई और उनके साथ बलात्कार के मामले भी उजागर हुए। मगर पुलिस ने ऐसा कुछ नहीं किया, जिससे लगे कि प्रशासन वहां हिंसा रोकने को लेकर गंभीर था। इसी का नतीजा था कि उपद्रवियों और वहां के आतंकी संगठनों ने अत्याधुनिक हथियार और ड्रोन आदि के जरिए पूरी रणनीति बना कर हमले किए।

मणिपुर की हिंसा में अब तक करीब ढाई सौ लोग मारे जा चुके हैं। डेढ़ हजार से ऊपर लोग घायल हो गए। सैकड़ों घर और पूजा स्थल जला डाले गए। हजारों लोग अब भी अपने घर नहीं लौट सके हैं, राहत शिविरों में रहने को मजबूर हैं। लोगों को राज्य की सुरक्षा व्यवस्था पर भरोसा नहीं रहा, इसलिए वे खुद टोलियां बना कर अपने गांवों की सुरक्षा करते हैं। इतना कुछ हो जाने के बाद भी एन बीरेन सिंह अपने पद पर बने रहे।

केंद्रीय नेतृत्व ने उन्हें हटने का दबाव नहीं बनाया, पर कोई भी संवेदनशील राजनेता इस तरह अपने लोगों को मरते, दर-बदर भटकते और जलालत सहते कैसे देखता रह सकता है, यह समझ से बाहर है। हालांकि कुछ समय से वहां हिंसा नहीं हो रही है, पर लोग इस बात को लेकर निश्चिंत नहीं हैं कि यह शांति कब तक बनी रहेगी।