इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि एक ओर विकास और अर्थव्यवस्था की भावी तस्वीर की चमक की बात की जा रही हो और दूसरी ओर देश में बच्चों के बीच कुपोषण की समस्या के गहराते जाने के आंकड़े सामने आएं। जबकि अमूमन हर कुछ रोज बाद इस तरह की बातें शीर्ष स्तर से कही जाती रहती हैं कि बच्चे चूंकि भविष्य की उम्मीद और बुनियाद हैं, इसलिए शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने सहित बाकी मामलों में भी उनके जीवन-स्तर में बेहतरी जरूरी है।

लेकिन आखिर क्या वजह है कि लंबे समय से इस मसले पर लगातार कई तरह की योजनाओं पर अमल और समय-समय पर नई घोषणाओं के बावजूद आज भी हालत यह है कि बहुत सारे बच्चे गंभीर कुपोषण का शिकार हैं। बल्कि मौजूदा दौर की मुश्किलों को देखते हुए कहा जा सकता है कि आने वाले दिन अभी गंभीर चुनौतियों से भरे होंगे। सवाल है कि अगर बच्चों में कुपोषण की समस्या चिंताजनक स्तर पर बरकरार रही तो विकास और बदलाव के तमाम दावों के बीच हम कैसे भविष्य की उम्मीद कर रहे हैं?

गौरतलब है कि सूचना का अधिकार कानून के तहत मांगी गई जानकारी के तहत केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने बताया है कि देश में तैंतीस लाख से ज्यादा बच्चे कुपोषित हैं। इनमें से आधे से अधिक बच्चे अत्यंत कुपोषित की श्रेणी में आते हैं। ये आंकड़े पिछले साल विकसित पोषण ऐप पर पंजीकृत किए गए, ताकि पोषण के नतीजों पर निगरानी रखी जा सके। फिलहाल आंगनवाड़ी व्यवस्था में शामिल करीब 8.19 करोड़ बच्चों में से चार फीसद से ज्यादा बच्चों को कुपोषित के दायरे में दर्ज किया गया है।

लेकिन न सिर्फ यह संख्या अपने आप में चिंताजनक है, बल्कि इससे ज्यादा गंभीर पक्ष यह है कि पिछले साल नवंबर की तुलना में इस साल अक्तूबर में गंभीर रूप से कुपोषित बच्चों की तादाद में इक्यानबे फीसद की बढ़ोतरी हो गई है। विचित्र यह भी है कि बच्चों के बीच कुपोषण की समस्या जिन राज्यों में सबसे ज्यादा है, उनमें शीर्ष पर महाराष्ट्र है। दूसरे स्थान पर बिहार और तीसरे पर गुजरात है। बाकी राज्यों में भी स्थिति परेशान करने वाली है, मगर यह हैरानी की बात है कि बिहार के मुकाबले महाराष्ट्र और गुजरात जैसे अपेक्षया विकसित राज्यों में संसाधन और व्यवस्था की स्थिति ठीक होने के बावजूद बच्चों के बीच कुपोषण चिंताजनक स्तर पर है।

दरअसल, इस मसले पर हालात पहले ही संतोषजनक नहीं थे, लेकिन बीते एक साल के दौरान बच्चों के बीच कुपोषण की समस्या ने तेजी से अपने पांव फैलाए हैं। यह स्थिति तब है जब देश में एकीकृत बाल विकास जैसी महत्त्वाकांक्षी योजना से लेकर स्कूलों में मध्याह्न भोजन जैसे अन्य कई कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। हालांकि बीते डेढ़ साल से ज्यादा समय से कोरोना महामारी की रोकथाम के क्रम में कई योजनाओं पर अमल में बाधाएं आई हैं। पूर्णबंदी के दौर में पहले ही करोड़ों लोग रोजी-रोजगार से वंचित हुए और इससे उनके खानपान और पोषण पर गहरा असर पड़ा।

हालत यह है कि वैश्विक भुखमरी सूचकांक में भारत एक सौ एक वें स्थान पर जा चुका है। ऐसे में यह सरकार की जिम्मेदारी है कि वह तमाम बाधाओं के बीच अनिवार्य कार्यक्रमों को कैसे सुचारु रूप से संचालित करती है। वरना मौजूदा अफसोसनाक तस्वीर के रहते हम किस कसौटी पर विश्व में एक बड़ी शक्ति होने का दावा कर सकेंगे? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि कुपोषित बच्चों की मौजूदा समस्या विकास के दावों के सामने आईना बन कर खड़ी रहेगी।