भाषा और जातीय अस्मिता के संरक्षण का सवाल कई बार राज्यों की राजनीति में संघीय व्यवस्था के मूल्यों से टकराने लगता है। भाषाई पहचान के आधार पर कुछ राज्यों में स्थानीय बनाम बाहरी का संघर्ष गहरे घाव छोड़ चुका है। पर अपनी भाषा की सुरक्षा, संरक्षा और संवर्धन का सरकारी दायित्व अपनी जगह बना रहता है। महाराष्ट्र सरकार का ताजा फैसला उसी दायित्व के तहत लिया गया है। महाराष्ट्र सरकार ने आदेश जारी किया है कि वहां के सभी सरकारी और अर्धसरकारी दफ्तरों में अधिकारियों को मराठी भाषा में बात करना अनिवार्य है। अगर कोई व्यक्ति इसका उल्लंघन करता पाया जाता है, तो उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी।

दरअसल, पिछले वर्ष स्वीकृत मराठी भाषा नीति में भाषा के संरक्षण, संवर्धन, प्रसार और विकास के लिए उठाए गए कदमों को आगे बढ़ाने के लिए सभी सार्वजनिक मामलों में मराठी के उपयोग की सिफारिश की गई थी। इसकी चिंता समझी जा सकती है। आज जिस तेजी से दुनिया सिकुड़ रही है, वैश्विक बाजार में भाषाई वर्चस्व महत्त्वपूर्ण हो गया है, उसमें बहुत सारी भाषाओं और बोलियों पर संकट गहरा गया है। हर वर्ष कई भाषाएं और बोलियां लुप्त हो जाती हैं। इस दृष्टि से राज्य सरकार की मराठी को लेकर चिंता उचित है।

अधिकारियों की भाषा हैं अंग्रेजी

मगर, संघीय व्यवस्था में ऐसे फैसले कई बार मुश्किलें खड़ी कर देते हैं। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि अधिकारियों की स्थानीय लोगों से निकटता उनकी भाषा के माध्यम से ही बढ़ सकती है। अक्सर बड़े अधिकारी अंग्रेजी में संवाद और कामकाज करना पसंद करते हैं, इसलिए स्थानीय लोगों को परेशानी होती है।

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ऐसे में महाराष्ट्र सरकार का फैसला कुछ हद तक ठीक कहा जा सकता है। पर जरूरी नहीं कि हर सरकारी दफ्तर में अधिकारियों को केवल मराठीभाषी लोगों से कामकाजी संपर्क बनता हो। बहुत सारे लोग ऐसे भी हो सकते हैं, जो मराठी बोलना नहीं जानते। यही बात ऐसे अधिकारियों पर भी लागू हो सकती है, जो मराठी नहीं जानते, पर महाराष्ट्र के सरकारी दफ्तरों में काम करते हैं। मराठी में बात करने की अनिवार्यता से दफ्तरों के कामकाज और अधिकारियों के मनोबल पर प्रतिकूल प्रभाव भी छोड़ सकती है।