इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि किसी बहुप्रचारित आयोजन में एक ही तरह के हादसे बार-बार सामने आएं और उनसे सबक लेना जरूरी न समझा जाए। महाकुंभ मेले में शुक्रवार को एक बार फिर आग लग गई। हालांकि इसमें किसी की जान नहीं गई और आग पर काबू पा लिया गया, लेकिन सच यह है कि वहां लापरवाही की वजह से ऐसे हादसे एक तरह का सिलसिला बन गए हैं। महाकुंभ की शुरूआत से अब तक आग लगने की कई घटनाएं हो चुकी हैं।
किसी भी हादसे का सबक यह होना चाहिए कि कम से कम उसके बाद ऐसे इंतजाम किए जाएं, ताकि फिर वैसा दुबारा न हो। मगर यह समझना मुश्किल है कि पहली बार व्यापक पैमाने पर आग भड़कने और उसमें कई पंडाल जल कर खाक हो जाने के बावजूद व्यवस्था के मोर्चे पर अब भी लापरवाही क्यों कायम है। सवाल है कि आग लगने से उपजने वाले जोखिम की गंभीरता की ऐसी अनदेखी की क्या वजह है और क्या इस तरह की लापरवाही के लिए किसी की जिम्मेदारी तय की जाएगी।
सरकारी दावे जमीनी स्तर पर नहीं दिख रहे उतने प्रभावी
यह छिपा नहीं है कि सरकार की ओर से महाकुंभ में हर स्तर पर व्यापक सुरक्षा व्यवस्था और सुविधाएं मुहैया कराने का दावा करते हुए ज्यादा से ज्यादा लोगों को वहां पहुंचने के लिए प्रेरित किया गया था। ऐसे बहुत सारे लोग होंगे, जिन्होंने सरकार के उन वादों के भरोसे वहां जाना तय किया। मगर यह अफसोस की बात है कि सरकारी दावे जमीनी स्तर पर उतने प्रभावी नहीं दिख रहे।
आखिरकार पांच साल बाद RBI ने कर दी रेपो दर में कटौती, मंहगाई को चार फीसद के आसपास समेटने की तैयारी
आग लगने की कई घटनाओं से इतर मौनी अमावस्या के दिन स्रान के मौके पर हुई भगदड़ और उसमें कई लोगों की जान जाने से यही पता चलता है कि हादसों से बचाव के लिए निगरानी और चौकसी के मोर्चे पर सरकार नाकाम रही है। एक के बाद एक हादसों के मद्देनजर सरकार को यह सोचने की जरूरत है कि उसकी व्यवस्था में किस स्तर पर कोताही या निर्देशों की अनेदखी हो रही है। वरना आग लगने की कोई घटना कभी ऐसी शक्ल भी ले सकती है, जो भगदड़ और उसके नतीजों की तरह भयावह त्रासदी साबित हो जाए।