करीब दो वर्ष पहले श्रीलंका में उपजे आर्थिक संकट के बीच जो हालात पैदा हुए थे, उसके मद्देनजर यह आशंका स्वाभाविक थी कि इस स्थिति से निकलने में देश को शायद काफी वक्त लग जाए। मगर चुनावों के बाद अब वहां एक तरह से नई सत्ता की स्पष्ट तस्वीर उभर कर सामने आई है। श्रीलंका में हुए चुनाव के बाद आखिरकार वामपंथी नेता अनुरा कुमारा दिसानायके को 42.31 फीसद मत मिले और उनके प्रतिद्वंद्वी रहे सजीथ प्रेमदासा को 32.76 फीसद वोट मिले। मगर दूसरे दौर की गिनती के बाद दिसानायके को वहां के नौवें राष्ट्रपति के रूप में चुन लिया गया।

दिलचस्प यह है कि सन 2019 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में दिसानायके को सिर्फ तीन फीसद वोट मिले थे। यानी कहा जा सकता है कि इस बीच श्रीलंका में आर्थिक संकट और बिगड़ती स्थिति के बीच मुख्यधारा के बाकी राजनीतिक पक्षों में से किसी की भी आम लोगों की अपेक्षाओं या उम्मीदों के बीच जगह नहीं बची थी। इस बीच देश से भ्रष्टाचार खत्म करने, मजदूरों की आवाज उठाने और अच्छा प्रशासन देने के दिसानायके के वादे ने एक तरह से अंधेरे में घिरी आम जनता को उम्मीद की रोशनी दी।

आर्थिक संकट के बीच चली श्रीलंका में अनुरा की आंधी

निश्चित रूप से श्रीलंका के लिए यह एक नई बयार है और उम्मीद की जानी चाहिए कि वह कुछ वर्ष पहले भिन्न धार्मिक पहचान पर आधारित हिंसा से लेकर व्यापक आर्थिक संकट की वजह से पैदा हुए व्यापक अराजक विद्रोह के हालात से आगे की राह पर कदम बढ़ाएगा। दिसानायके की जीत को श्रीलंका में नस्लीय या धार्मिक कट्टरता के खिलाफ जनादेश भी कहा जा सकता है।

मगर भारत और उसके पड़ोसी देशों की इस बात पर नजर रहेगी कि नई भू-राजनीतिक परिस्थितियों के बीच अंतरराष्ट्रीय संबंधों के समीकरण में श्रीलंका क्या रुख अख्तियार करेगा। पहले ही इस बात की आशंका जताई जाती रही है कि चीन के कर्ज के जाल में उलझने का असर श्रीलंका के अपने पड़ोसी देशों के साथ संबंधों और नीतियों पर पड़ता रहा है। अब वहां वामपंथी विचारधारा के एक नेता के राष्ट्रपति बनने के बाद यह देखने की बात होगी कि श्रीलंका चीन के प्रभाव से किस हद तक मुक्त रह पाता है।