विधि आयोग द्वारा पिछले सप्ताह सरकार को सौंपी गई रपट में यौन संबंधों के लिए सहमति उम्र के मसले पर आए सुझावों की व्यावहारिक अहमियत इस रूप में है कि आमतौर पर इसे तकनीकी प्रश्न के रूप में देखा जाता है, लेकिन संदर्भों के लिहाज से कई बार वह एक संवेदनशील स्थिति होती है। इसी तरह, आयोग ने चरणबद्ध तरीके से ई-एफआइआर का पंजीकरण शुरू करने की भी सिफारिश की है, जिसकी शुरुआत तीन साल की जेल की सजा वाले अपराधों से होगी। जहां तक पाक्सो अधिनियम का सवाल है, तो इसे बच्चों को यौन अपराधों से बचाने के लिहाज से एक प्रगतिशील कदम के तौर पर देखा जाता है।
कानूनी जटिलताओं की वजह से बच निकलते हैं क्रिमिनल
इससे पहले बच्चों से होने वाले यौन दुर्व्यवहार के मामले में कानूनी जटिलताओं की वजह से कई बार अपराधियों को वाजिब सजा दिलाने में अड़चनें सामने आती थीं। लेकिन इस कानून के लागू होने के बाद यौन हिंसा संबंधी अपराधों से बच्चों को संरक्षण और दोषियों को सजा दिलाने के मामले में काफी प्रभावी नतीजे देखे गए हैं।
सहमति की मौजूदा उम्र में कोई बदलाव न करने का सुझाव
हालांकि भारत में सामाजिक स्तर पर कई बार ऐसी स्थितियां देखी जाती रही हैं, जिनमें सोलह से अठारह वर्ष के किशोरों के बीच मौन स्वीकृति से बने यौन संबंधों को पाक्सो कानून के तहत अपराध के दायरे में देखा जाता है। इसलिए सहमति से यौन संबंधों की उम्र को अठारह वर्ष से कम करने की मांग भी उठती रही है। अब विधि आयोग ने सरकार को पाक्सो कानून के तहत सहमति की मौजूदा उम्र में कोई बदलाव न करने का सुझाव दिया है।
साथ ही आयोग ने सोलह से अठारह वर्ष के बीच के किशोरों की परस्पर सहमति से बने संबंधों से जुड़े मामलों में सजा सुनाने के संदर्भ में निर्देशित न्यायिक विवेक का उपयोग करने की सलाह दी है। भारत में कानूनी स्तर पर तय उम्र से पहले यानी नाबालिगों के विवाह या सामाजिक जीवन से जुड़ी अन्य स्थितियों के मद्देनजर कई बार सहमति से बने यौन संबंधों को अपराध के वर्ग में रखने को लेकर सवाल उठाया जाता है। मगर इस पर विधि आयोग की चिंता वाजिब है कि अगर इस मामले में उम्र में छूट दी गई तो न केवल बाल दुर्व्यवहार और बाल विवाहों, बल्कि बाल तस्करी के खिलाफ भी लड़ाई पर इसका नकारात्मक असर पड़ेगा। गौरतलब है कि बाल तस्करी के मामलों में सजा की दर पहले ही काफी कम रही है।
समाज में प्रचलित मान्यताओं या कायदों के समांतर कानूनी कसौटियों को लेकर अक्सर बहस होती रही है। कई बार यह किसी जोखिम वाले सामाजिक तबके के हक में बने कानूनों और जमीनी स्थितियों के बीच खींचतान के रूप में भी विवाद का विषय बनता है। ऐसे में जोखिम वाले तबके के रूप में बच्चों और किशोरों को चिह्नित करके उनके संरक्षण या हित में बने कानून को उसके वास्तविक संदर्भों में ही देखा जाना चाहिए। इसके अलावा, किसी वारदात के बाद पीड़ित की ओर से पुलिस थाने में प्राथमिकी दर्ज कराने में देरी और उसमें टालमटोल के मामले छिपे नहीं रहे हैं।
इसकी वजह से कई बार अपराधियों को उचित सजा नहीं मिल पाती है। इसके मद्देनजर विधि आयोग ने चरणबद्ध तरीके से ई-एफआइआर का पंजीकरण करने की सिफारिश की है, ताकि नागरिक वास्तविक समय में अपराध की सूचना पुलिस महकमे को दे सकें। जाहिर है, विधि आयोग के ताजा सुझाव वास्तविक स्थितियों के आकलन और कानून की कसौटियों को उनकी व्यावहारिकता में देखने की जरूरत दर्शाते हैं।