प्रशासनिक कामकाज की भाषा को लेकर अक्सर उलझन या फिर दोहरा रवैया देखा जाता है। चूंकि प्रशासन को आम लोगों की समस्याएं सुननी और सुलझानी होती हैं, इसलिए हमेशा जोर दिया जाता है कि वह उन्हें समझ में आने वाली भाषा में काम करे, तो ज्यादा व्यावहारिक और उपयोगी रहेगा।

मगर चूंकि बड़े अफसर और अधिकतर मंत्री अंगरेजी में काम करना पसंद करते हैं, इसलिए जनतंत्र का एक अहम तकाजा दरकिनार रहता है। ऐसे में दिल्ली के पुलिस आयुक्त भीमसेन बस्सी का अपने महकमे को सारे दफ्तरी कामकाज हिंदी में निपटाने का निर्देश प्रशंसनीय भी है और प्रेरक भी। यह भी गौरतलब है कि यह पहल हिंदी दिवस के आसपास हुई है।

अमूमन हर साल हिंदी दिवस पर हिंदी को बढ़ावा देने की बातें खूब होती हैं, पर ठोस निर्णयों के अभाव में वे हवाई साबित होती हैं। बस्सी को प्रेरणा शायद गृहमंत्री राजनाथ सिंह के उस आग्रह से भी मिली होगी, जिसमें उन्होंने अफसरों से कहा है कि वे हिंदी में हस्ताक्षर करें। अगर सभी मंत्री और वरिष्ठ अधिकारी अपने मातहत कर्मचारियों को हिंदी के इस्तेमाल संबंधी ऐसा ही निर्देश जारी करें, इसके लिए प्रोत्साहित करें तो शासन-प्रशासन को जनोन्मुखी बनाने की दिशा में वह एक बड़ा काम होगा।

मोदी सरकार ने शुरू में यह संकेत दिया था कि वह अपने कामकाज में हिंदी के इस्तेमाल को प्रोत्साहित करेगी। इसे स्वाभाविक एक सकारात्मक कदम के रूप में देखा गया। मगर उलझन यह जताई गई कि दिल्ली देश की राजधानी होने और बहुभाषिक-बहुसांस्कृतिक शहर होने के चलते यहां सरकारी कामकाज में हिंदी को अनिवार्य बनाना एक तरह से उन अधिकारियों-कर्मचारियों पर उसे थोपने जैसा होगा, जिन्होंने कभी हिंदी सीखी-पढ़ी नहीं। सामान्य व्यवहार में वे भले हिंदी में बोल-बतिया लें, पर दफ्तरी कामकाज में उन्हें मुश्किल आएगी।

हालांकि दिल्ली पुलिस के सामने ऐसी कोई अड़चन नहीं है। चूंकि पुलिस बल में ज्यादातर कर्मचारी स्थानीय स्तर पर भरती होते हैं, उन्हें हिंदी मेंं कोई परेशानी नहीं होती। निचले स्तर के लगभग सभी कर्मचारी हिंदी में ही एफआइआर, शिकायतें आदि दर्ज करते हैं। अड़चन केवल बड़े अधिकारियों के स्तर पर हो सकती है, पर इसे इसलिए दिक्कतदेह नहीं माना जा सकता, क्योंकि वे सामान्य व्यवहार में हिंदी से परिचित हैं और जो नहीं हैं, उनके लिए इसका अभ्यास मुश्किल नहीं हो सकता।

फिर, यह ध्यान देना होगा कि कहीं इस निर्देश का हश्र भी उन तमाम आदेशों-निर्देशों की तरह न हो जाए, जैसे बैंकों और तमाम सरकारी कार्यालयों में हुआ है, जहां एक पट््िटका पर लिख कर लटका दिया जाता है कि ‘यहां हिंदी में कामकाज होता है’, पर हकीकत में होता उसके उलट है। हिंदी के आग्रह को एक जनतांत्रिक कर्तव्य के रूप में देखा जाना चाहिए। इसीलिए अन्य भारतीय भाषाओं को भी उनके प्रदेशों में वैसा ही स्थान और सम्मान मिले। मद्रास हाइकोर्ट के वकीलों ने तमिल में बहस करने की इजाजत देने की मांग उठा कर इसी आकांक्षा को मुखरित किया है।

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