बहुभाषिक देश होने की वजह से हमारे यहां प्राथमिक स्तर पर मातृभाषा में शिक्षा का संवैधानिक प्रावधान है। यह अच्छा भी है, क्योंकि बच्चा अपनी मातृभाषा में ही सही ढंग से रचनात्मक सोच विकसित कर पाता है। मगर शिक्षा संबंधी यही भाषायी सुविधा बच्चे के लिए असुविधा बन जाती है, जब वह उच्च शिक्षा के लिए जाता है।
खासकर तकनीकी विषयों की पढ़ाई मातृभाषा में कराने की व्यवस्था विकसित ही नहीं की गई। तर्क यह दिया गया कि चूंकि तकनीकी शब्दावली के भारतीय भाषाओं में पर्याय बनाना जटिल काम है, इसलिए उनकी शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी रखना ही उचित होगा। हालांकि अब कुछ राज्य सरकारों ने हिंदी और दूसरी भाषाओं में इंजीनियरिंग, चिकित्सा आदि तकनीकी विषयों की पढ़ाई का प्रयास भी शुरू किया है, मगर पढ़ाने वालों के सामने भाषा संबंधी अड़चनें बनी हुई हैं।
इसलिए उच्च शिक्षा में बच्चों का अंग्रेजी से पिंड नहीं छूट पा रहा। वे जैसे-तैसे जोड़तोड़ कर अंग्रेजी में लिखी किताबों से सिद्धांतों और अवधारणाओं को तो आत्मसात कर लेते हैं, मगर जब परीक्षा देने की बारी आती है, तो उनके हाथ-पांव ठंडे पड़ जाते हैं। अनेक मेधावी बच्चे भी परीक्षा में इसीलिए पिछड़ जाते हैं कि उत्तर अंग्रेजी में नहीं लिख पाते। अब विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने इस अड़चन को दूर करने का कदम उठाया है।
विश्वविद्यालय अनुदान आयोग के अध्यक्ष ने सभी विश्वविद्यालयों को पत्र लिख कर आग्रह किया है कि वे विद्यार्थियों को स्थानीय भाषाओं में भी परीक्षा देने का अवसर उपलब्ध कराएं। बेशक पाठ्यक्रम अंग्रेजी में हो, पर उन्हें सवालों का जवाब स्थानीय भाषा में लिखने का अवसर मिलना चाहिए। यूजीसी ने विश्वविद्यालयों से यह भी अनुरोध किया है कि तकनीकी विषयों की पुस्तकें स्थानीय भाषाओं में भी तैयार कराने का प्रयास होना चाहिए।
यह एक तरह से उसी कदम की अगली कड़ी है, जिसके तहत कुछ राज्य सरकारें तकनीकी विषयों की पाठ्यपुस्तकें भारतीय भाषाओं में भी उपलब्ध कराने के प्रयास में जुटी हैं। यह विद्यार्थियों में आत्मविश्वास पैदा करने और प्रतिभा विकास की दृष्टि से तो अच्छी पहल है, मगर व्यावहारिक स्तर पर इसकी सफलता को लेकर सवाल बने ही रहेंगे। उच्च शिक्षा में केवल डिग्री हासिल करना मकसद नहीं होता।
उसमें शोध और अनुसंधान की स्वाभाविक अपेक्षा जुड़ी होती है। इसलिए विश्वस्तरीय शोध और अनुसंधान की दृष्टि से स्थानीय भाषाओं में शिक्षा प्राप्त करना अड़चन बन सकता है। फिर, व्यावहारिकता के स्तर पर इसकी उपयोगिता को लेकर बड़ा प्रश्नचिह्न लग जाता है। चिकित्सा विज्ञान में अद्यतन शोधों की जानकारी के बिना काम नहीं चल सकता, इसे स्थानीय भाषा में ग्रहण करना थोड़ा जटिल है।
तर्क यह भी दिया जाता है कि जब सामाजिक विज्ञान और कला विषयों में विद्यार्थी अपनी मर्जी से भाषा माध्यम का चुनाव कर अपनी प्रतिभा का लोहा मनवा सकता है, तो तकनीकी विषयों में ऐसा क्यों संभव नहीं है। कुछ विद्यार्थी ऐसे भी उदाहरण हैं, जिन्होंने आइआइटी में अपना शोध हिंदी में लिख कर जमा कर चुके हैं और उनकी प्रतिभा किसी से कम नहीं है।
फिर कहा यह भी जाता है कि तकनीकी विषयों का व्यावहारिक उपयोग आखिरकार स्थानीय लोगों के बीच ही किया जाता है, इसलिए उन्हीं की भाषा में उसे अभिव्यक्त करना पड़ता है। इस तरह दोनों पक्षों के दृष्टिगत कुल मिला कर अड़चन संस्थानों और शिक्षकों का स्थानीय भाषाओं के प्रति उदासीन भाव ही स्पष्ट होता है। ऐसे में यूजीसी की ताजा पहल से उनमें पसरी यह जड़ता कुछ टूटने की उम्मीद बनती है।