वर्ष 2013 में बने भूमि अधिग्रहण कानून की जगह नया विधेयक लाने के पीछे मोदी सरकार जो दलीलें देती आई है, तथ्य उनकी पुष्टि नहीं करते। प्रधानमंत्री यह कहते रहे हैं कि यूपीए सरकार के दौरान जो कानून बना वह विकास की राह में बहुत बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है। लेकिन खुद वित्त मंत्रालय के आंकड़े दूसरी तस्वीर पेश करते हैं।

सूचनाधिकार के तहत मांगी गई जानकारी में मंत्रालय ने बताया है कि फरवरी तक आठ सौ चार परियोजनाएं लंबित थीं, इनमें से केवल आठ फीसद के लंबित रहने की वजह जमीन की अनुपलब्धता थी। ज्यादातर परियोजनाओं के अटके होने के पीछे बाजार की स्थिति से लेकर पर्यावरणीय मंजूरी तक दूसरे कारण थे। कई मामलों में खुद आवेदक की दिलचस्पी बाद में नहीं रह गई। फिर भी 2013 के भूमि अधिग्रहण कानून को मोदी सरकार खलनायक के रूप में पेश करती आ रही है। संशोधित कानून लाने के उसके फैसले का किसान संगठनों से लेकर विपक्षी दलों तक, चौतरफा विरोध हुआ है। उस पर कॉरपोरेट-जमात के आगे घुटने टेकने के आरोप लगे हैं। इसकी काट में प्रधानमंत्री ने किसानों से ‘मन की बात’ कहते हुए कहा कि विपक्षी दल भ्रम फैला रहे हैं, उनसे सावधान रहें।

मोदी और उनके मंत्री यह भी दोहराते रहे हैं कि नए विधेयक का मकसद किसानों के हितों की रक्षा करना और कमजोर तबकों के कल्याण की योजनाएं बनाना है। मगर वित्त मंत्रालय के आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहीत न हो पाने की वजह से लंबित परियोजनाओं में एक का भी सीधा संबंध कमजोर वर्गों के कल्याण से नहीं है। लंबित प्रस्तावों में अठहत्तर फीसद निजी क्षेत्र के हैं। फिर, आठ सौ चार में से एक सौ पैंतालीस प्रस्ताव ऐसे हैं जिन्हें ‘लग्जरी’ ही कहा जाएगा। इनमें होटल, रिसॉर्ट, मल्टीप्लेक्स, मॉल, गोल्फकोर्स आदि बनाने के प्रस्ताव हैं।

जिन पंद्रह राज्यों में सबसे अधिक परियोजनाएं लंबित हैं उनमें से दस राज्य ऐसे हैं जहां आदिवासियों की अच्छी-खासी तादाद है। इन तथ्यों से अंदाजा लगाया जा सकता है कि भूमि अधिग्रहण कानून में प्रस्तावित संशोधन से किनके हित सधेंगे और किन लोगों को उनकी कीमत चुकानी पड़ेगी। जाहिर है, इसमें सरकार को विरोध झेलना पड़ेगा। उससे निपटने के लिए अधिग्रहण के सिलसिले में जमीन के मालिकों की सहमति को नए विधेयक में हटाने का प्रावधान है। इसके अलावा, संबंधित परियोजनाओं के सामाजिक प्रभाव के आकलन की व्यवस्था समाप्त कर दी जाएगी। अन्य प्रकार की जमीन के साथ-साथ बहुफसली जमीन का भी अधिग्रहण किया जाएगा। आरटीआइ आवेदन के जरिए सामने आए आंकड़ों से पहले कैग की रिपोर्ट ने भी अधिग्रहण की हकीकत बताई थी।

कैग की उस रिपोर्ट ने बताया कि सेज यानी विशेष आर्थिक क्षेत्रों के लिए जो जमीनें ली गई थीं उनमें से पचास फीसद से ज्यादा आबंटन के आठ साल बाद भी खाली पड़ी थीं। कुछ मामलों में जमीन का उपयोग आवेदन में बताए गए प्रयोजन में नहीं, दूसरे कामों में हुआ। सरकार की निगाह में विपक्ष की बातें झूठा प्रचार हैं, मगर कैग की रिपोर्ट और आरटीआइ आवेदन के जवाब में मुहैया कराए गए खुद वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के बारे में वह क्या कहेगी! प्रधानमंत्री यह भी कहते रहे हैं कि यूपीए सरकार के समय भूमि अधिग्रहण कानून हड़बड़ी में बना था।

जबकि सच यह है कि वह दो साल तक चले व्यापक विचार-विमर्श का परिणाम था। वह विधेयक संसद की आम राय से पारित हुआ और भाजपा ने भी उसका समर्थन किया था। मजे की बात यह है कि हड़बड़ी का आरोप प्रधानमंत्री ने लगाया, जिन्हें अध्यादेश लाने में कोई हिचक नहीं हुई। उन्हें किसान संगठनों और विपक्ष की बातें गौर करने लायक नहीं लगतीं। पर वे वित्त मंत्रालय के आंकड़ों को कैसे झुठला सकते

 

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