जंगलों की कटाई को लेकर अक्सर सवाल उठते, आंदोलन उभरते रहते हैं, पर हकीकत यही है कि जंगल कटने बंद नहीं होते। हसदेव का जंगल कटना शुरू हुआ, तो देश भर के पर्यावरण प्रेमी चिंतित नजर आए, लंबे समय तक आंदोलन चला, मगर उसका कटना नहीं रुक पाया। अब वैसा ही आंदोलन हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के पास कांचा गाचीबोवली वन क्षेत्र के चार सौ हेक्टेयर भूखंड पर अधिग्रहण और पेड़ों की कटाई को लेकर शुरू हो गया है।
विश्वविद्यालय के छात्रों और पर्यावरणकर्मियों की संरक्षित वन क्षेत्र घोषित करने की मांग
विश्वविद्यालय के छात्र और पर्यावरणकर्मी इस क्षेत्र को संरक्षित वन क्षेत्र घोषित करने की मांग कर रहे हैं। जब आंदोलन उग्र रुख अख्तियार करता दिखा, तो सर्वोच्च न्यायालय ने अगले आदेश तक किसी भी गतिविधि पर रोक लगा दी। दरअसल, हैदराबाद विश्वविद्यालय प्रशासन का कहना है कि इस भूखंड पर मालिकाना हक उसका है, जबकि राज्य सरकार उसे अपना बता रही है। सरकार उस क्षेत्र को साफ करके वहां औद्योगिक क्षेत्र बनाना चाहती है। मगर आंदोलनकारियों का कहना है कि यह क्षेत्र संवेदनशील है और इसमें चाढ़े चार सौ से अधिक वन्य प्रजातियों का बसेरा है। इसे संरक्षित क्षेत्र घोषित करना चाहिए।
हालांकि यह विवाद नया नहीं है। करीब ढाई वर्ष पहले वहां के उच्च न्यायालय ने फैसला दिया था कि विश्वविद्यालय के पास इस जमीन के मालकियत का कोई उचित दस्तावेज नहीं है। उस फैसले को सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी गई, तो उसने उच्च न्यायालय के फैसले को बरकरार रखते हुए कहा कि जमीन पर मालिकाना हक राज्य सरकार का है। उसी आधार पर राज्य सरकार ने उस क्षेत्र का व्यावसायिक उपयोग करने का निर्णय किया था। मगर यह सवाल अपनी जगह है कि सरकार ने उस क्षेत्र के वन्य प्राणियों के पुनर्वास की क्या योजना बनाई है। यह सवाल सर्वोच्च न्यायालय ने भी पूछा है।
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अदालत ने जानना चाहा है कि क्या इसके लिए सरकार ने पर्यावरण प्रभाव मूल्यांकन प्रमाणपत्र लिया है! ये तथ्य तो अदालती सुनवाई के दौरान पता चल सकेंगे, पर असल मुद्दा है कि आज जब जलवायु परिवर्तन का दुष्प्रभाव सब ओर नजर आने लगा है, सरकारों को वन क्षेत्र की सुरक्षा का सवाल गंभीर क्यों नहीं जान पड़ता। सरकार का किसी भूखंड पर स्वामित्व होने का यह अर्थ कतई नहीं होता कि उसे पर्यावरण और वन्यजीव अधिनियम की फिक्र करने की कोई जरूरत नहीं। आखिर उद्योगीकरण की भूख इतनी विकराल क्यों हो गई है कि पारिस्थितिकी का सवाल वहां कोई मायने ही नहीं रखता।
इसी हफ्ते संसद में एक सवाल के जवाब में केंद्र सरकार ने बताया कि पच्चीस राज्यों से प्राप्त आंकड़ों के मुताबिक अब तक करीब तेरह हजार वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र पर अतिक्रमण हो चुका है। यह क्षेत्र कुछ छोटे राज्यों के आकार के बराबर है। वैसे ही बिगड़ते पारिस्थितिकी संतुलन और तेजी से शुष्क हो रही हवाओं के कारण जंगलों के जीवन पर गंभीर खतरा मंडराने लगा है, उसमें अगर सरकारें खुद विकास के नाम पर जंगल उजाड़ने पर तुली हैं, तो चिंता स्वाभाविक है। प्राकृतिक रूप से बने जंगलों पर आखिर किसका अधिकार होना चाहिए, यह परिभाषित करना रह गया है, इसलिए सड़कों, भवनों, औद्योगिक इकाइयों आदि के लिए पर्यावरण प्रभाव का माकूल मूल्यांकन करने के बजाय सरकारों की इच्छा सर्वोपरि मान ली जाती है। इससे संबंधित कानून बहुत कमजोर कर दिए गए हैं, विकास का मुद्दा बड़ा हो गया है। इस पर फिर से संवेदनशील तरीके से विचार की जरूरत है।