कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने आखिर सोमवार को सत्ताधारी लिबरल पार्टी के नेता और प्रधानमंत्री पद से इस्तीफे की घोषणा कर दी। पिछले कई महीने से वे जिस तरह के जद्दोजहद से गुजर रहे थे, नीतिगत मुद्दों पर भी एक तरह के ऊहापोह और अस्पष्टता के शिकार दिख रहे थे, उससे साफ था कि उनके सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं, जिनका सामना कर पाना उनके लिए मुश्किल हो रहा था। एक ओर, वे कनाडा में अपने नेतृत्व के प्रति बढ़ते असंतोष, महंगाई और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों का कोई उचित हल पेश नहीं कर पा रहे थे, तो दूसरी ओर विदेश नीति के मामले में भी उनके रुख पर कई हलकों में हैरानी जताई जा रही थी।
अपनी स्थितियों का शिकार हुए ट्रूडो
ट्रूडो के सत्ता में आने के बाद उम्मीद की गई थी कि आंतरिक मोर्चे पर नीतिगत और जमीनी स्तर पर जनता के हक में बदलाव लाने के साथ-साथ विदेश नीति के मोर्चे पर वे नए समीकरण खड़े करेंगे। मगर बीते कुछ समय से कनाडा में जैसे हालात बन रहे थे, उसमें ट्रूडो के इस्तीफे को उनकी अपनी ही स्थितियों का शिकार होने के तौर पर देखा जा रहा है।
ट्रूडो को मात्र 28 फीसदी लोग कर रहे पसंद
कनाडा में कुछ समय पहले हुए एक सर्वेक्षण में सामने आया था कि पहली बार जब ट्रूडो प्रधानमंत्री बने थे, तब उन्हें तिरसठ फीसद लोग पसंद करते थे, लेकिन अब उनका समर्थन करने वालों की तादाद महज अट्ठाईस फीसद रह गई है। पार्टी और सरकार के ढांचे में भी उन्हें लेकर एक तरह का द्वंद्व चल रहा था।
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अर्थव्यवस्था की खस्ता हालत, हर स्तर पर बेकाबू महंगाई और भ्रष्टाचार के कई मामलों पर अस्पष्ट रुख की वजह से उनकी लोकप्रियता में लगातार गिरावट दर्ज की गई। इसके अलावा, भारत के साथ कूटनीतिक संबंधों के मामले में शायद सिर्फ अपने आग्रहों या नाहक जिद की वजह से ट्रूडो ने लगातार हालात बिगड़ने दिए। हालत यह है कि दोनों देशों के संबंधों में सुधार का रास्ता अब सिर्फ कनाडा की सत्ता में बदलाव को ही माना जा रहा है। अब यह देखने की जरूरत है कि ट्रूडो के बाद कनाडा में सत्ता का नया समीकरण आंतरिक और विदेश नीति के मोर्चे पर क्या रुख अपनाता है।