अभी तक भाजपा यह दम भरती आई थी कि उसने अपने वादे के मुताबिक महंगाई को काबू में रखा है। पर उसका यह दावा अब हाथ से फिसलता लग रहा है, क्योंकि इधर बीच रोजमर्रा की चीजों, खासकर खाद्य पदार्थों के दाम तेजी से बढ़े हैं। सबसे ज्यादा तेजी दाल, टमाटर, प्याज, आलू आदि रोजाना की खपत की चीजों में दिखती है। दो साल में अरहर के दाम में दोगुनी बढ़ोतरी हुई है, उड़द के दाम में एक सौ बीस फीसद। टमाटर इन दिनों साठ से अस्सी रुपए प्रतिकिलो बिक रहा है। आलू को सदा गरीबों का सहारा माना जाता रहा है। पर इन दिनों आलू की कीमत भी चुभ रही है तथा प्याज एक बार फिर रुलाने लगा है। खाद्य पदार्थों की कीमतों में आई इस तेजी ने सरकार के माथे पर भी परेशानी की लकीरें खींच दी हैं जिसका अंदाजा शीर्ष स्तर पर हुई ताबड़तोड़ बैठकों से लगाया जा सकता है।

कैबिनेट सचिव ने जहां उपभोक्ता, कृषि, वाणिज्य और राजस्व विभागों के सचिवों की बैठक बुलाई, वहीं उपभोक्ता मामलों के सचिव ने खुफिया ब्यूरो, राजस्व खुफिया निदेशालय और राज्यों के पुलिस प्रमुखों के साथ विचार-विमर्श कर हालात का जायजा लिया। कैबिनेट सचिव की बुलाई बैठक में दाल के अधिक आयात पर जोर दिया गया। जनवरी में ही यह दिखने लगा था कि लगातार दो सूखे के फलस्वरूप दाल का संकट पैदा हो सकता है। अगर आयात के सहारे ही इससे निपटना है तो इस बारे में निर्णय और पहले भी हो सकता था। सरकार या तो हालात का पूर्वानुमान नहीं लगा सकी, या हालात को जानते हुए भी उसने तत्परता नहीं दिखाई। इस बीच डीजल के दाम में सवा रुपए प्रति लीटर की बढ़ोतरी कर दी गई, जिससे ढुलाई और महंगी हो गई, यानी महंगाई को हवा देने वाली एक और वजह शामिल हो गई। जब खाद्य वस्तुओं की कीमतें चढ़ती हैं, तो अक्सर सरकारें किसानों को अधिक दाम दिए जाने की आड़ में अपना बचाव करने की कोशिश करती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि किसान तो पहले से दुखी हैं ही, अब सामान्य मध्यवर्गीय शहरी तबका भी नाराज है।

किसानों के लिए सरकार ने धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य में पिछले साल के मुकाबले सिर्फ साठ रुपए प्रति क्विटंल की बढ़ोतरी की, जो बेहद मामूली है। यह उस सरकार का व्यवहार है जिसने किसानों को उनकी उपज की लागत से डेढ़ गुना दाम दिलाने का वादा किया था। भाजपा के चुनावी घोषणापत्र में एक वादा महंगाई को नियंत्रण में रखने के लिए मूल्य स्थिरीकरण कोष बनाने का भी था। सरकार के दो साल बीतने पर भी इस दिशा में कोई पहल नहीं हुई है। कुछ दिन पहले रिजर्व बैंक ने द्विमासिक मौद्रिक नीति जारी करते हुए, महंगाई बढ़ने का अंदेशा जाहिर कर ब्याज दरों को यथावत रखा था।

यह सत्ता में बैठे कुछ लोगों और ग्रोथवादी आर्थिक विश्लेषकों को नागवार गुजरा। लेकिन महंगाई के मौजूदा ग्राफ ने साबित किया है कि रघुराम राजन सही थे। उपभोक्ता मूल्य सूचकांक पर आधारित महंगाई छह फीसद पर पहुंच गई है, जबकि सरकार और रिजर्व बैंक ने इसे अगले साल मार्च तक पांच फीसद की सीमा में रखने का लक्ष्य तय किया हुआ है। यह भी कम विचित्र नहीं है कि जब महंगाई का ग्राफ नीचे था, केंद्र सरकार इसका श्रेय लेते नहीं थकती थी, पर कीमतें चढ़ने का सारा दोष राज्यों के मत्थे मढ़ने की कोशिश हो रही है। पर जिन राज्यों में भाजपा या राजग की सरकारें हैं वहां गेंद किसके पाले में डाली जाएगी!