वरिष्ठ आइएएस अधिकारी अशोक खेमका के तबादले को लेकर स्वाभाविक ही हरियाणा सरकार पर अगुंलियां उठ रही हैं। खेमका अपनी ईमानदारी और नियम-कायदों का पालन सुनिश्चित करने के लिए जाने जाते हैं। इस क्रम में ताकतवर राजनीतिकों और रसूखदार लोगों की भी वे परवाह नहीं करते। वे खास चर्चा में तब आए जब उन्होंने रॉबर्ट वडरा और डीएलफ कंपनी के बीच हुए जमीन के सौदे को अनियमितता के आधार पर रद््द कर दिया था। उनके इस फैसले को हाल में आई कैग की रिपोर्ट ने भी सही ठहराया है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा को खेमका की वह कार्रवाई ईमानदारी और कर्तव्य-निष्ठा की मिसाल नजर आती थी। हरियाणा की तत्कालीन कांग्रेसी सरकार ने खेमका के उस फैसले से खफा होकर उन्हें पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग में भेज दिया था। भाजपा हरियाणा की सत्ता में आई तो उसने खेमका को परिवहन विभाग के आयुक्त और सचिव पद की जिम्मेदारी सौंपी। लेकिन चार महीने बाद भाजपा सरकार ने भी उन्हें वहीं भेज दिया है, पुरातत्त्व एवं संग्रहालय विभाग में।

यों मनोहर लाल खट्टर की सरकार इस तबादले को सामान्य प्रशासनिक फैसला बता रही है, पर यह किसी के गले नहीं उतर रहा। यहां तक कि राज्य के एक कैबिनेट मंत्री अनिल विज ने भी इस तबादले को गलत करार दिया है। विज की मुख्यमंत्री से पटरी नहीं बैठती। इसलिए हो सकता है उनकी आलोचना के पीछे खट््टर से चली आ रही उनकी खुन्नस भी हो। पर सवाल है कि चार महीने में ही खेमका को परिवहन विभाग से पुरातत्त्व विभाग में भेजने की जरूरत राज्य सरकार को क्यों महसूस हुई? अगर भाजपा भ्रष्टाचार-विरोध और सुशासन के अपने वादे पर कायम है तो परिवहन आयुक्त के तौर पर खेमका के काम से उसे खुश होना चाहिए था। पर ऐसा लगता है कि खेमका के काम से खट्टर सरकार को असुविधा महसूस हो रही थी।

परिवहन विभाग के शीर्ष अधिकारी रहते हुए खेमका ने सड़क सुरक्षा नियमों को सख्ती से लागू किया। ओवरलोडिंग पर लगाए गए अंकुश के चलते वे परिवहन लॉबी और खनन माफिया के निशाने पर आ गए। ट्रक मालिकों ने हड़ताल भी की। पर खेमका नियम-कायदों के पक्ष में डटे रहे। राज्य सरकार ने उनका साथ देने के बजाय उन्हें परिवहन विभाग से चलता कर दिया। क्या ईमानदार और कर्तव्यनिष्ठ अफसर का काम कर पाना इतना मुश्किल हो गया है?

खेमका की नौकरी को तेईस साल हो चुके हैं। यह उनका छियालीसवां तबादला है। यानी औसतन हर छह महीने में एक तबादला। अपने नए तबादले पर खेमका ने यह कह कर अपना दर्द बयान किया है कि ये पल उनके लिए बहुत पीड़ादायक हैं। पर वे इस पीड़ा से गुजरने वाले अकेले अधिकारी नहीं हैं। हरियाणा के ही वन विभाग के अधिकारी संजीव चतुर्वेदी को कांग्रेसी राज में प्रताड़ित होना पड़ा था। भाजपा के राज में उन्हें अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान का सतर्कता अधिकारी नियुक्त किया गया। पर वहां कई अनियमितताओं की जांच में जुटे चतुर्वेदी को जल्दी ही एम्स से चलता कर दिया गया। इन दोनों अधिकारियों के मामलों में भाजपा ने भी वैसा ही रवैया अख्तियार किया, जैसा कांग्रेस का था। इससे यही जाहिर होता है कि सरकार भले बदल गई हो, मगर एक ईमानदार अधिकारी के साथ सत्ता का सलूक पहले जैसा ही है। ऐसे अनुभवों को देखते हुए यह जरूरी जान पड़ता है कि वरिष्ठ अधिकारियों के तबादले, पदोन्नति की बाबत स्वतंत्र प्राधिकरण बने।

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