नागरिकता संशोधन विधेयक के संसद के दोनों सदनों में पारित हो जाने और राष्ट्रपति की भी स्वीकृति मिल जाने के बाद पूर्वोत्तर में विद्रोह की लपटें तेज हो गई हैं। विपक्षी दल तो शुरू से इस विधेयक का विरोध कर रहे थे, धीरे-धीरे राज्य सरकारों ने इसे लागू करने से मना करना शुरू कर दिया है। पहले पश्चिम बंगाल, पंजाब और केरल ने कह दिया था कि वे अपने यहां इस कानून को लागू नहीं करेंगे। अब मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र ने भी इसे स्वीकार करने से इनकार कर दिया है। मगर केंद्र सरकार कह रही है कि इस कानून को लागू करना उनकी संवैधानिक बाध्यता है। उधर कुछ लोगों ने अदालत में इस कानून को चुनौती दी है। सर्वोच्च न्यायालय का फैसला आना है। इस कानून को लेकर बहुत सारे समाजसेवी, बुद्धिजीवी विरोध में खड़े हैं। सर्वोच्च न्यायालय के एक अवकाश प्राप्त न्यायाधीश ने भी इसके विरोध में हस्ताक्षर किया है। मगर सरकार का तर्क है कि यह कानून मुसलिम समुदाय के लोगों के विरोध में नहीं है, इसलिए उनकी सुरक्षा को लेकर चिंताएं निर्मूल हैं। मगर हकीकत यही है कि सरकार इस कानून को लेकर चौतरफा घिरी नजर आ रही है।
नागरिकता (संशोधन) विधेयक में, जो अब कानून का रूप ले चुका है, स्पष्ट रूप से कहा गया है कि पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान में धार्मिक आधार पर प्रताड़ित हिंदू, सिख, बौद्ध, सिख, ईसाई और पारसी समुदाय के लोगों को नागरिकता प्रदान की जाएगी। इसमें मुसलिम समुदाय के लोगों को बाहर रखा गया है। फिर श्रीलंका में धर्म के आधार पर प्रताड़ित हिंदुओं को इसमें शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा रोहिंग्या और अहमदिया जैसे समुदाय के लोग भी धर्म के आधार पर प्रताड़ित हैं, उनकी कोई सुध नहीं ली गई है। इसी को लेकर विरोध हो रहा है। इस कानून को संविधान की मूल भावना के विरुद्ध बताया जा रहा है। संविधान नागरिकता के मामले में सेक्युलर व्यवस्था देता है, उसमें किसी भी समुदाय के प्रति धर्म के अधार पर भेदभाव को गैरकानूनी करार दिया गया है। फिर यह भी संकल्प है कि संविधान की इस भावना के विरुद्ध कोई भी बदलाव नहीं किया जा सकता। इसलिए कई लोग आशान्वित हैं कि सर्वोच्च न्यायालय इस कानून को अवैध करार दे देगा। इस पर अदालत का क्या रुख होता है, देखने की बात है। पर नागरिकों के विद्रोह से निपटना फिलहाल सरकार के लिए बड़ी चुनौती है।
पूर्वोत्तर में हिंदू और मुसलमान का मामला नहीं है। वहां कई जनजातीय समुदाय हैं, जो अपनी पहचान के लिए लंबे समय से संघर्ष करते रहे हैं। असम समझौते में वहां के जनजातीय समुदाय के नागरिकों की पहचान सुरक्षित रखने का प्रावधान किया गया। अब नागरिकता (संशोधन) कानून लागू होने से पुराने प्रावधान अप्रभावी हो जाएंगे। दूसरे प्रदेशों और देशों के लोगों को वहां जाकर बसने की गुंजाइश बनेगी। इससे पूर्वोत्तर के लोगों का जीवन प्रभावित होगा। हालांकि वहां सरकार ने इनर लाइन परमिट लागू किया है, यानी वहां वही जा सकता है, जिसे परमिट हासिल है, पर वह आंशिक रूप से ही प्रभावी है। इसी को लेकर वहां नाराजगी फट पड़ी है। कर्फ्यू के बावजूद हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर उतर रहे हैं। यह गुस्सा धीरे-धीरे दूसरे राज्यों में भी फैल रहा है। ऐसे में सरकार के लिए इस कानून को लागू करवा पाना आसान नहीं होगा। उसे इस पर पुनर्विचार कर व्यावहारिक रूप देने की जरूरत है।