नागरिकता संशोधन विधेयक लोकसभा में पास भले हो गया हो, लेकिन इसे लेकर देश के विभिन्न इलाकों में जिस तरह का भय और संदेह पैदा हो रहा है, उसे अच्छा संकेत नहीं कहा जा सकता। इस विधेयक के विरोध में मंगलवार को असम, मेघालय, त्रिपुरा सहित पूर्वोत्तर के कई इलाकों में लोग सड़कों पर उतरे, बड़े पैमाने पर विरोध-प्रदर्शन हुए, हिंसा-आगजनी की खबरें आर्इं। इतना ही नहीं, लोकसभा में सोमवार को देर रात तक चली तीखी बहस में दशकों पुराने मामले उखाड़े गए, एक दूसरे पर इतिहास की गलतियों के ठीकरे फोड़े गए और बताया गया कि पहले भी शरणार्थियों को नागरिकता दी गई है। गृह मंत्री ने देश के बंटवारे के लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया तो कांग्रेस ने बताया कि द्वि-राष्ट्र सिद्धांत का प्रस्ताव तो 1935 में पहली बार हिंदू महासभा के नेता वीर सावरकर ने रखा था। इन सबसे लगता है कि नागरिकता संशोधन विधेयक को लेकर जिस तरह की आशंकाएं और डर विपक्ष, देश के बुद्धिजीवियों और दूसरे वर्गों की ओर से व्यक्त किया जा रहा है, वह निराधार तो नहीं है। हालांकि अभी इस विधेयक पर राज्यसभा में चर्चा होनी है और सरकार वहां भी इसे पारित कराने में कामयाब हो जा सकती है। अगले चरण में यह कानून भी बन जा सकता है। लेकिन इसे लेकर विपक्ष के जो बुनियादी सवाल हैं, उनका जवाब शायद नहीं मिल पाए।
विपक्ष की आपत्ति शरणार्थियों को नागरिकता देने को लेकर नहीं है। उसकी आपत्ति धर्म के आधार पर नागरिकता देने को लेकर है। विधेयक में पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश से आए गैर-मुसलमानों को नागरिकता देने की बात है। इन गैर-मुसलमानों में इन तीनों देशों में अल्पसंख्यक के रूप में रह रहे हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध और पारसी धर्म के लोग हैं। मुसलमानों को बाहर इसलिए रखा गया है कि इन देशों में मुसलमान अल्पसंख्यक नहीं हैं। लेकिन सवाल यह है कि जब भारत एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र है तो ऐसे में मुसलमानों को इससे बाहर रखा जाना संविधान की मूल भावना के खिलाफ है, जो भारत राष्ट्र-राज्य की संकल्पना पर चोट पहुंचाता है। इसीलिए विपक्ष ने इस विधेयक को अनैतिक और असंवैधानिक करार दिया है। भले ही सरकार कितनी सफाई दे और दावा करे कि यह विधेयक मुसलमानों के खिलाफ नहीं है, लेकिन इससे पूरे देश में जाहिर तौर पर यह संदेश गया है कि मुसलमानों के लिए भारत के दरवाजे बंद हैं।
सरकार के लिए यह बड़ी चुनौती है कि वह विपक्ष और देश के नागरिकों खासतौर से मुसलिम समुदाय के इस डर का समाधान कैसे करती है।
शरणार्थी और घुसपैठिए दोनों पुराने मुद्दे हैं। शरणार्थियों को नागरिकता देने के लिए किसी भी तरह के दस्तावेज की जरूरत भी खत्म कर दी गई है। एक मोटे अनुमान के मुताबिक इस वक्त भारत में करीब चौरासी हजार बांग्लादेशी शरणार्थी और एक लाख से ज्यादा तमिल शरणार्थी रह रहे हैं। यह वह आंकड़ा है जो सरकार के पास दर्ज है।
लेकिन हकीकत में शरणार्थियों की संख्या इससे कहीं ज्यादा होगी। नागरिकता संशोधन विधेयक में तमिल शरणार्थियों को शामिल नहीं किया गया है। ऐसे में ये कहां जाएंगे? इससे भी बड़ा सवाल तो यह है कि एनआरसी से जो लोग बाहर हो गए हैं, उनका क्या होगा? इनकी तादाद तो लाखों में है। फिर घुसपैठियों और शरणार्थियों की पहचान कोई आसान काम तो है नहीं। पहचान के नाम पर स्थानीय प्रशासन और पुलिस लोगों का उत्पीड़न करेगी और मानवाधिकार के सवाल उठेंगे। पूर्वोत्तर के ज्यादातर इलाकों में इनर लाइन परमिट व्यवस्था है, फिर भी सबसे ज्यादा चिंता और खौफ वहीं है। अगर सरकार नागरिकता संशोधन विधेयक को कानूनी जामा पहनाने की दिशा में बढ़ रही है तो इन सवालों पर भी गौर तो करना होगा।