साक्षी मलिक ने अंतिम राउंड में जैसे ही अपनी प्रतिद्वंद्वी आइसुलू ताइनेकबेकोवा को हरा कर जीत दर्ज की और उन्हें कांस्य पदक की विजेता घोषित किया गया, पिछले ग्यारह दिनों से पदकों से खाली भारतीय उम्मीदें झूम उठीं। यह एक ऐसी उपलब्धि है, जिसने समूचे देश को खुशी और उत्साह से भर जाने का मौका दिया है, क्योंकि भारत के लिए पदक की उम्मीद जगाने वाले कई दिग्गज निशानेबाज, बैडमिंटन और टेनिस स्टार हार कर प्रतियोगिता से बाहर हो चुके थे। दीपा कर्मकार के प्रदर्शन और हौसले ने सबका दिल जीत लिया, लेकिन बेहद मामूली अंतर से पदक उनके हाथ से फिसल गया। ऐसे में अट्ठावन किलोग्राम भार-वर्ग कुश्ती के जिस मुकाबले में किर्गिस्तान की पहलवान आइसुलू ताइनेकबेकोवा साक्षी के बरक्स थीं, उसमें वे आखिरी दौर तक थकी हुई दिख रही थीं। लेकिन कई बार शरीर की थकान को इंसान का जीवट मात दे देता है। साक्षी ने शायद अपने मन में हारने से इनकार कर दिया था। यही वजह है कि मुकाबले के बिल्कुल अंतिम पलों में उनके भीतर से जैसे कोई झोंका उठा और आखिर बाजी पलट गई। अब भारतीय खेलों के इतिहास में पदक जीतने वाली चौथी महिला के तौर पर साक्षी का नाम रियो ओलंपिक की उपलब्धि के साथ चमकता रहेगा। उनकी यह कामयाबी देश के साथ-साथ हरियाणा के लिए भी गर्व का विषय है, जहां वे पैदा हुर्इं, पली-बढ़ीं। विडंबना यह है कि हरियाणा में पुरुष आबादी के बरक्स स्त्री आबादी का अनुपात बेहद खराब है। साक्षी की सफलता हरियाणा के लिए एक सामाजिक संदेश भी है।

अंतरराष्ट्रीय खेल प्रतियोगिता की दुनिया में भारत को अभी वहां पहुंचना बाकी है, जहां अपेक्षया कुछ कम विकसित देश पदकों की दौड़ में अमेरिका, रूस या चीन जैसे देशों को चुनौती देते हैं। भारत के फिसड््डी रहने के पीछे संसाधनों की कमी से लेकर प्रतिभाओं की उपेक्षा और राजनीतिक दखलंदाजी तक कई वजहें हैं। कुछ दिन पहले अपने बेहतरीन प्रदर्शन के बावजूद दीपा कर्मकार के पदक से चूक जाने के बाद जब उनके अभाव से गुजरने से लेकर रियो में उनके फिजियोथेरापिस्ट के उनके साथ नहीं जा पाने की खबर आई थी, तब यह भी साफ हुआ था कि भारतीय खिलाड़ियों के पिछड़ने के लिए कौन-सी व्यवस्था जिम्मेदार है। इस सब के बीच से निकलते हुए साक्षी ने देश के खेल-तंत्र को आईना दिखाया है कि अगर विश्वस्तरीय व्यवस्था और प्रोत्साहन हो तो और बड़ी कामयाबी हासिल करना कोई बहुत मुश्किल काम नहीं है। दूसरी ओर, लैंगिक भेदभाव से जूझते हुए साक्षी का कुश्ती जैसे खेल में अपनी क्षमता का लोहा मनवाना इस अहम संदेश के तौर पर देखा जाएगा कि लड़कियों के प्रति दुराग्रह पालने वाले लोग किस तरह गलत हैं। बस कंडक्टर की एक साधारण नौकरी करने वाले साक्षी के पिता (और मां) भी इसलिए बधाई के हकदार हैं कि घोर पुरुष वर्चस्व वाले समाज में उन्होंने अपनी बेटी को कुश्ती जैसे खेल में आगे बढ़ने का हौसला दिया। उम्मीद की जानी चाहिए कि साक्षी की यह कामयाबी स्त्रियों के खिलाफ एक जड़ व्यवस्था और पिछड़ी मानसिकता की दीवारों को तोड़ेगी और समाज बेटियों के रास्ते की बाधा बनने के बजाय उनके हर कदम आगे बढ़ने पर गर्व महसूस करेगा।