पद्म पुरस्कारों के लिए नामों के चयन में सत्ता पक्ष का आग्रह नई बात नहीं है, मगर इस बार जिन लोगों को सम्मानित करने की खबर आई है, उसमें उपकृत करने का भाव अधिक है। इन पुरस्कारों का मकसद साहित्य, कला, संस्कृति, शिक्षा, विज्ञान, समाजसेवा, पर्यावरण, खेल, सिनेमा आदि क्षेत्रों में देश के लिए अतुलनीय योगदान करने वाले व्यक्तियों को सम्मानित करना है। मगर देखा गया है कि सरकारें अपने करीबी लोगों को इनसे नवाजती रहती हैं। कई बार इसके लिए पुरस्कारों का दायरा भी बढ़ाने की कोशिश की जा चुकी है। इसी के चलते प्रशासन और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय रहे लोगों को भी इसका लाभ मिलता रहा है। इस बार यह प्रवृत्ति कुछ अधिक प्रकट लगती है। जिन एक सौ अड़तालीस लोगों का नाम सुर्खियों में है, वे सभी भाजपा से सीधे जुड़े या किसी न किसी रूप में उसे लाभ पहुंचाते रहे हैं। जो अलग दिख रहे हैं, उनसे भविष्य में लाभ मिलने की संभावना हो सकती है।
उनमें लालकृष्ण आडवाणी, पंजाब के मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, योगगुरु बाबा रामदेव, श्रीश्री रविशंकर, गीतकार प्रसून जोशी, अर्थशास्त्री बिबेक देबरॉय आदि कुछ प्रमुख नाम हैं। लालकृष्ण आडवाणी एक तरह से पार्टी में हाशिये पर हैं, इसलिए उन्हें खुश करने के लिए इस तरह सम्मानित करने के बारे में सोचा गया होगा। मगर यह उनके लिए गरिमामय किसी रूप में नहीं कहा जा सकता। पंजाब में अकाली दल के साथ भाजपा के रिश्ते तनावपूर्ण चल रहे हैं। ऐसे में प्रकाश सिंह बादल को इस तरह कहां तक संतुष्ट किया जा सकता है, देखने की बात होगी। रही बात बाबा रामदेव और रविशंकर की तो उनकी भाजपा से नजदीकी छिपी नहीं है, फिर धार्मिक नेताओं के प्रति भाजपा का झुकाव भी जाहिर है। खबर के मुताबिक ऐसे कई धार्मिक नेताओं को इस सूची में शामिल किया गया है। प्रसून जोशी ने लोकसभा चुनाव के दौरान प्रचार-गीत लिखे थे, उसी का पुरस्कार उन्हें मिला है। ऐसे ही अर्थशास्त्र, विज्ञान आदि के क्षेत्र में उन्हीं लोगों को सम्मानित किए जाने की खबर है, जिन्होंने भाजपा के एजेंडे के अनुरूप काम किया है। मगर इस तरह इन लोगों को उपकृत करके पद्म सम्मानों की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने का दावा भाजपा शायद ही कर पाए।
विचित्र है कि भाजपा संस्कृति की रक्षा का दंभ सबसे अधिक भरती रही है, मगर पद्म सम्मानों के लिए नामों पर विचार करते समय संस्कृति के क्षेत्र से जुड़े लोगों पर नजर कम जा पाई है। साहित्य इसमें नदारद है। सवाल है कि इतने विशाल भारतीय साहित्य में क्या ऐसे रचनाकारों का अकाल है, जिनका काम उल्लेखनीय कहा जा सके। कला के क्षेत्र में अनेक वरिष्ठ चित्रकार, मूर्तिशिल्पी हैं जिनकी अंतरराष्ट्रीय ख्याति है, उनमें से किसी को इसके योग्य नहीं समझा गया। बरसों से वरिष्ठ रचनाकारों, कलाकारों की उपेक्षा पर अंगुलियां उठती रही हैं, फिर भी खुद को संस्कृति की पैरोकार कहने वाली सरकार को उनमें से किसी को सम्मानित करने की नहीं सूझी! क्या इसलिए कि साहित्य और कलाओं में लगातार प्रतिरोध का स्वर प्रमुख रहा है! अधिसंख्य रचनाकार-कलाकार-संस्कृतिकर्मी लंबे समय से नरेंद्र मोदी का मुखर विरोध करते रहे हैं! मगर लोकतंत्र में वैचारिक आग्रहों को ऊपर रख कर सम्मानों की सूची तैयार करने को भला कौन उचित कह सकता है! जिन्हें छोड़ दिया गया, इस तरह उनका अपमान तो नहीं हो सकता, इससे सरकार की संकुचित दृष्टि का पता जरूर मिलता है। पद्म सम्मान राष्ट्रीय गौरव की पहचान चिह्नित करते हैं, उन्हें उपकृत करने के भाव से बांटा जाना उनकी गरिमा को धूमिल करना ही होगा।
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