यमुना की लगातार बिगड़ती हालत पर लंबे समय से चिंता जताई जाती रही है। इसके लिए समय-समय पर योजनाएं बनीं और हजारों करोड़ रुपए के अनुदान भी जारी हुए। लेकिन आज अगर यमुना एक स्वस्थ नदी कही जा सकने लायक नहीं है तो इसके लिए किसकी जिम्मेदारी तय होनी चाहिए? यों जिन राज्यों से होकर यमुना गुजरती है, उनकी ओर से अक्सर आश्वासन जारी किए जाते हैं कि वे यमुना को स्वच्छ बनाने के लिए सब कुछ करने को तैयार हैं। मगर सच्चाई का अंदाजा यमुना की हालत देख कर लगाया जा सकता है। शायद यही वजह है कि मंगलवार को एनजीटी यानी राष्ट्रीय हरित पंचाट ने यमुना की सफाई पर असंतोष जाहिर करते हुए दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश की सरकारों को काम की गारंटी के तौर पर एक महीने के भीतर दस-दस करोड़ रुपए जमा कराने का निर्देश दिया। इसके अलावा, पंचाट ने आगाह किया कि अगर काम में कोताही हुई और निर्देश का पालन नहीं हुआ तो इसके लिए तीनों राज्यों के मुख्य सचिव निजी तौर पर जिम्मेदार होंगे। इस संबंध में गठित निगरानी समिति की सिफारिशों के मुताबिक काम नहीं हुआ तो यह रकम जब्त कर ली जाएगी।
जाहिर है, राज्य सरकारों की लापरवाही पर इस बार हरित पंचाट ने सख्त रुख अख्तियार किया है। मगर देखना यह है कि इस सख्ती के मद्देनजर सरकारें इस बार यमुना की सफाई को लेकर कितना सक्रिय होती हैं! यह छिपा नहीं है कि जब भी यमुना की सफाई को लेकर सवाल तूल पकड़ने लगते हैं, तब सरकारें आश्वासन देने में देरी नहीं करती हैं। लेकिन कभी राशि जारी करने में या फिर किसी अन्य काम की व्यस्तता की दलील पर इस ओर सक्रिय होकर काम कराने की जरूरत नहीं समझी जाती। यमुना की गंदगी की सबसे बड़ी वजहों में नालों का पानी, औद्योगिक इकाइयों के अपशिष्ट आदि का नदी में बहाया जाना और तटों पर मलबा जमा करना शामिल है। ऐसे अनेक मौके आए जब नदी के किनारों पर मलबा गिराने पर जुर्माना लगाने या फिर नालों और औद्योगिक इकाइयों के जहरीले अपशिष्ट यमुना में गिराने पर रोक लगाने की बात आई। मगर इन सब आश्वासनों, अदालतों या हरित पंचाट के निर्देशों की जमीनी हकीकत क्या है, यह यमुना को देख कर पता चलता है। इसलिए स्वाभाविक ही इस बार हरित पंचाट ने अपशिष्ट, नालों की सफाई और मलबा हटाने को लेकर तीनों राज्यों के प्रति सख्ती दिखाई है।
गौरतलब है कि करीब पांच साल पहले ही एक संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि यमुना सफाई के नाम पर साढ़े छह हजार करोड़ रुपए बेकार हो गए, क्योंकि नदी पहले से भी गंदी हो गई है। सवाल है कि आखिर इतनी बड़ी रकम किस मद में खर्च की गई और उसका क्या हासिल हुआ? क्या यमुना सफाई के नाम पर हजारों करोड़ रुपए भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गए? इससे काफी पहले 2001 में ही सुप्रीम कोर्ट ने साफ तौर पर कहा था कि अगले दो साल के भीतर यमुना को ऐसा बना दिया जाना चाहिए कि उसे ‘मैली नदी’ के रूप में नहीं जाना जाए। मगर सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश के करीब अठारह साल बाद भी यमुना अगर किसी गंदे नाले की दशा में पहुंच चुकी है, उसका पानी नहाने तक के लायक नहीं है तो क्या यह सवाल गलत होगा कि सरकारों के लिए अदालतों के आदेश या निर्देश कोई मायने नहीं रखते? यह ध्यान रखने की जरूरत है कि नदियां मानव सभ्यता की सबसे बड़ी सहयोगी रही हैं। अगर यमुना को एक स्वच्छ नदी के रूप में वापस नहीं लाया जाता है तो यह हमारी विकसित सभ्यता पर एक सवालिया निशान होगा।