उत्तराखंड जैसे पहाड़ी इलाकों में भी अगर स्वाइन फ्लू का प्रकोप बढ़ रहा है, तो यह समझने की जरूरत है कि इसे कोई मौसमी रोग मान कर अनदेखी करने का नतीजा क्या हो सकता है। यों दिल्ली, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात, उत्तर प्रदेश, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और तेलंगाना में भी इस बुखार ने जिस तरह अपने पांव फैलाए हैं, उससे साफ है कि इससे बचाव के एहतियाती इंतजामों को लेकर देश भर में संबंधित सरकारी महकमे कितने लापरवाह रहे हैं। खबरों के मुताबिक जनवरी के पहले तीन हफ्तों में ही देश भर में स्वाइन फ्लू के करीब दो हजार आठ सौ मामले सामने आ चुके हैं और पचासी लोगों की मौत हो चुकी है। अकेले राजस्थान में मरीजों की तादाद लगभग साढ़े बारह सौ है और अब तक उनचास लोग जान गंवा चुके हैं। इसके अलावा, दिल्ली के अलग-अलग अस्पतालों से पांच सौ बत्तीस लोगों के इसकी चपेट में होने की खबर है। जबकि पिछले पूरे साल सिर्फ दो सौ अठारह लोगों को स्वाइन फ्लू होने की खबर आई थी। इस साल दिल्ली में अभी तक ग्यारह लोगों की मौत इससे होने की आशंका जताई गई है। पंजाब में भी नब्बे लोग इसकी चपेट में आए और नौ की मौत हो गई।
ऐसा नहीं है कि स्वाइन फ्लू ने इस साल कोई अचानक ही जोर पकड़ लिया है। बल्कि लगातार पिछले कई सालों से कम या ज्यादा असर के साथ इसकी जद में दिल्ली सहित देश के अनेक इलाके आते रहे हैं और यह एक गंभीर चिंता का विषय बना हुआ है। गौरतलब है कि सबसे पहले स्वाइन फ्लू की शुरुआत मैक्सिको में हुई थी, लेकिन पिछले सात-आठ सालों के दौरान इसने भारत जैसे कई देशों में कहर ढाना शुरू कर दिया है। हमारे देश में इसका सबसे गंभीर असर 2010 में देखा गया था, जब लगभग बीस हजार लोग इसकी चपेट में आ गए थे। तब इस बुखार के लक्षणों, असर और इलाज को लेकर बहुत जागरूकता नहीं थी और यही वजह है कि उस साल करीब साढ़े सत्रह सौ लोगों की जान चली गई थी। हालांकि इस दौरान इस बीमारी के उभरने के मौसम और बचाव के उपायों आदि को लेकर तथ्य साफ हो चुके हैं। लेकिन सच यह है कि इसके लक्षणों की पहचान से लेकर इलाज तक के मामले में चूंकि अभी तक पर्याप्त जागरूकता नहीं देखी जाती है, इसलिए इसकी जद में आने वाले मरीजों की कई बार जान पर बन आती है या फिर स्थिति ज्यादा गंभीर होने पर मौत भी हो जाती है।
दरअसल, सामान्य जुकाम या बुखार और इसके लक्षणों के बीच कोई बड़ा फासला नहीं है, इसलिए अक्सर इसकी चपेट में आए लोगों को इसे पहचानने में देरी हो जाती है। जबकि अगर शुरुआत से ही इसे लेकर सावधानी बरती जाए, वक्त पर इसकी पहचान करके जरूरी इलाज कराया जाए तो इसके जानलेवा होने की आशंका कम होती है। मुश्किल यह भी है कि किसी रोग से पैदा समस्या जब तक बेलगाम नहीं हो जाती है तब तक सरकारी महकमों की नींद नहीं खुलती है। फिर मौसम या किसी अन्य वजह से बीमारी का प्रकोप कम होने लगता है तो सरकार यह सोच कर निश्चिंत हो जाती है कि अब समस्या खत्म हो गई। जबकि जरूरत इस बात की है कि समय रहते इससे बचाव के पूर्व इंतजाम किए जाएं, हर अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र पर टीके की उपलब्धता के साथ-साथ इससे बचने या वक्त रहते इसकी पहचान के लिए जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाएं। यह ध्यान रखने की जरूरत है कि मामूली सावधानी बरत कर भी बहुत सारे लोगों की जान बचाई जा सकती है।