जम्मू-कश्मीर के बारामूला और शोपियां जिले में अलग-अलग तलाशी अभियान के दौरान छह आतंकवादियों को मार गिराना भारतीय सेना की एक और बड़ी कामयाबी कही जा सकती है। बारामूला जिले में मारे गए तीन आतंकियों में एक लश्करे-तैयबा का कमांडर था और दो पाकिस्तानी नागरिक बताए जा रहे हैं। इस मुठभेड़ के बाद जम्मू-कश्मीर पुलिस ने दावा किया है कि बारामूला में आतंकवादियों को नेस्तनाबूद कर दिया गया है। अगर ऐसा है, तो निस्संदेह यह भारतीय सुरक्षा बलों की बड़ी कामयाबी है। पिछले करीब तीन सालों में सुरक्षा बलों के सघन तलाशी अभियान और आतंकवादी ठिकानों पर कड़ी निगरानी की वजह से वहां स्थानीय दहशतगर्दी पर काफी हद तक अंकुश लगाया जा चुका है। आतंकवादी हमलों में निरंतर कमी आई है। पाकिस्तान की तरफ से होने वाली घुसपैठ में भी कमी आई है। इस तरह वहां आतंकवादियों में घबराहट और बौखलाहट के संकेत बहुत पहले मिलने लगे थे, जब उन्होंने सुरक्षा बलों को बंधक बनाना शुरू कर दिया और कश्मीरी युवकों से जम्मू-कश्मीर पुलिस में भर्ती न होने के फरमान निकालने शुरू कर दिए। अगर बारामूला से आतंकवादियों को पूरी तरह खत्म कर दिया गया है, तो यह दहशतगर्दों की कमर टूटने का ही संकेत है।

जम्मू-कश्मीर में आतंकवाद के जड़ें जमाने का बड़ा कारण स्थानीय लोगों से उसे मिलने वाला समर्थन रहा है। आतंकवादी और अलगाववादी संगठन तथा कुछ धार्मिक कट्टरपंथी युवाओं को गुमराह करने में कामयाब होते रहे हैं। उनके परिवारों को आतंकवाद से मिले जख्मों को कुरेद कर या फिर उन्हें धार्मिक और स्थानीय मुद्दों के जरिए भावनात्मक रूप से उकसा कर कभी उन्हें हाथ में पत्थर तो कभी बंदूक उठाने को प्रोत्साहित करते रहे हैं। इसके लिए पाकिस्तान से उन्हें मदद भी मिलती रही है। मगर जब से अलगाववादी संगठनों के बैंक खातों पर कड़ी नजर रखी जाने लगी और सीमा पार से आने वाले पैसे पर रोक लगाने में कामयाबी मिली है, तब से आतंकवादी संगठनों के सामने मुश्किलें खड़ी हो गई हैं। फिर मुठभेड़ में मारे जाने वाले नौजवानों के जनाजे की नमाज में तकरीर पर रोक और सोशल मीडिया पर ऐसी तकरीरें प्रसारित करने पर अंकुश लगने से भी युवाओं को गुमराह करने का उनका सिलसिला काफी कमजोर हो गया है। स्थानीय लोगों को अपने रोजी-रोजगार से मतलब होता है, वे दहशतगर्दों और अलगाववादियों के हथकंडों को समझते हैं, इसलिए जब उन्होंने देखा कि दहशतगर्द अब उनके ही बच्चों को निशाना बनाने लगे हैं, तो उन्होंने उन्हें पनाह देनी बंद कर दी है। यह भी एक तरह से सुरक्षा बलों की कामयाबी है।

अब तक के अनुभवों से जाहिर है कि जब तक स्थानीय लोग दहशतगर्दी को समर्थन देना बंद नहीं करते, इस पर पूरी तरह काबू पाना मुश्किल बना रहता है। अगर अब वहां सड़कों पर पत्थर लेकर उतरने वाली भीड़ नहीं दिखाई देती, अलगाववाद के नारे नहीं लगते, युवाओं के दहशतगर्दों में शामिल होने की दर बढ़ी और तमाम धमकियों और अपीलों के बावजूद वे सेना और पुलिस में भर्ती हो रहे हैं, तो यह इसी बात का संकेत है कि स्थानीय लोगों का मन बदल रहा है। आतंकवाद पर नकेल कसने का सुरक्षा बलों का यह प्रयास चलता रहा, तो निस्संदेह इस समस्या से निपटने की उम्मीद बनती है। हालांकि तकाजा यह भी है कि केवल बंदूक पर भरोसा न करके स्थानीय लोगों की अपेक्षाओं और बुनियादी जरूरतों का भी ध्यान रखना चाहिए।