भारत में कई जीव-जंतुओं की प्रजातियां विलुप्त होने की कगार पर पहुंच गई हैं। इस बीच पूर्वोत्तर में हाल ही में उभयचर जीवों की तेरह नई प्रजातियों के अस्तित्व की खोज वास्तव में राहत भरी है। मानव समाज विविध एवं गहन पारिस्थितिकी तंत्र पर निर्भर है और जब जीवों की प्रजातियां कम या खत्म होने लगती हैं, तो इस तंत्र की कड़ियां भी टूटने लगती हैं।

वर्तमान में भले ही इसका प्रभाव प्रत्यक्ष रूप से नजर न आए, लेकिन भविष्य में इसका नतीजा निश्चित रूप से भयावह रूप में सामने आएगा। जिन उभयचरों की नई प्रजातियां मिली हैं, उनमें से छह अरुणाचल प्रदेश, तीन मेघालय और एक-एक असम, मिजोरम, नगालैंड तथा मणिपुर में पाई गई हैं।

जाहिर है कि ये प्रजातियां कभी अच्छी-खासी तादाद में रही होंगी, लेकिन पर्यावरण में बदलाव, जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों से उपजी स्थितियों के कारण इनकी संख्या इतनी कम हो गई कि ये वर्षों तक इंसानी नजर से भी ओझल रहीं।

दरअसल, पशु-पक्षियों और अन्य जीवों की कई प्रजातियों का विलुप्त होना पूरे पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश का सूचक है और इस मसले को हर स्तर पर गंभीरता से लेने की जरूरत है। देश की जैव विविधता का नियमित तौर पर दस्तावेजीकरण होना चाहिए, ताकि विलुप्त होने की कगार पर पहुंच चुकी प्रजातियों को पहचान कर उनके संरक्षण के लिए विशेष प्रयास किए जा सकें।

रीढ़ वाले जीवों की 680 प्रजातियां विलुप्त

इस संकट की गहराई का आकलन संयुक्त राष्ट्र के अंतर-सरकारी विज्ञान-नीति मंच की एक रपट से किया जा सकता है, जिसमें कहा गया है कि दुनिया भर में कशेरुकी यानी रीढ़ वाले जीवों की 680 प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और करीब दस लाख प्रजातियों पर इसी तरह का खतरा मंडरा रहा है।

भारत में गौरैया चिड़िया भी इसी संकट से गुजर रही है। अलग-अलग रपटों के मुताबिक, चालीस वर्षों में देश में गौरैया की तादाद साठ-पैंसठ फीसद तक कम हो गई है। कुछ वर्ष पहले तक गौरैया के संरक्षण के लिए कई स्तरों पर विशेष मुहिम शुरू हुई थी, लेकिन वक्त के साथ ये प्रयास दम तोड़ते नजर आ रहे हैं।

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