हालांकि सीमा पर रुके सामान से लदे ट्रकों का सोमवार की सुबह नेपाल में प्रवेश शुरू हो गया, और इससे उम्मीद की जानी चाहिए कि कुछ दिनों से इस पड़ोसी देश के साथ चल रही तनातनी का दौर फिलहाल समाप्त हो जाएगा। लेकिन पिछले दिनों भारत और नेपाल के बीच जैसी खटास देखने को मिली वह दुर्भाग्यपूर्ण ही कही जाएगी। भारत और नेपाल की दोस्ती पुरानी है। दोनों पड़ोसी तो हैं ही, उनके बीच इतिहास और सभ्यता-संस्कृति से लेकर बहुत कुछ ऐसा है जो साझा है।

नेपाल से भारत का जैसा रिश्ता रहा है, वैसा किसी और देश के साथ नहीं। दोनों की सीमा खुली हुई है। भारत ने नेपालियों को अपने यहां रहने, शिक्षा ग्रहण करने और काम करने की छूट दी हुई है। एक मैत्री संधि, जैसी किसी और देश के साथ नहीं है, दशकों से कायम है। नेपाल सरकार और वहां की बड़ी पार्टियों की तरफ से आए ताजा बयानों को संबंधों की इस पृष्ठभूमि के बरक्स देखें, तो हालत और भी असामान्य नजर आएगी। सामान की आपूर्ति बाधित रहने से क्षुब्ध नेपाल ने पहले तो संयुक्त राष्ट्र से भारत की शिकायत की, और फिर दिल्ली में उसके राजदूत दीप कुमार उपाध्याय ने भारत को धमकी दे डाली।

उपाध्याय ने कहा कि भारत पेट्रोलियम और अन्य जरूरी वस्तुओं की आपूर्ति में बाधा डाल कर नेपाल को इस तरह से मजबूर न करे कि उसे तमाम दिक्कतों के बावजूद चीन की तरफ जाना पड़े। क्या सचमुच भारत ने नेपाल को ऐसी स्थिति में डाल दिया है? यह सही है कि नेपाल के लोग कुछ समय से रोजमर्रा की कठिनाइयां झेलते रहे हैं, पर इसके लिए भारत नहीं, नेपाल की आंतरिक परिस्थितियां जिम्मेवार हैं।

बीस सितंबर को नेपाल का नया संविधान लागू होने की घोषणा होते ही नेपाल के तराई क्षेत्र में नाराजगी का लावा फूट पड़ा। तब से लगातार विरोध-प्रदर्शन और नाकेबंदी का सिलसिला चलता रहा है। इस बीच नेपाल के अनेक नेताओं ने भारत पर आरोप लगाया कि नाकेबंदी के पीछे उसका हाथ है और वह नेपाल के आंतरिक मामले में हद दर्जे की दखलंदाजी कर रहा है। यह सही है कि भारत ने नए संविधान को लेकर उत्पन्न असंतोष दूर करने की हिदायत दी, पर मधेशियों के विरोध-प्रदर्शनों को भारत की देन बताना सही नहीं होगा।

नेपाल के संविधान को लेकर भारत कोई प्रतिक्रिया न करता, तब भी मधेशी, थारु और कई अन्य जनजातियों के लोग नाराजगी ही जताते। इसलिए कि नए संविधान ने उन्हें बुरी तरह आशंकित कर दिया है। उन्हें लगता है कि संघीय ढांचे की सात राज्यों के रूप में जैसी तजवीज की गई है उसके चलते विधायिका में उनका प्रतिनिधित्व उनकी आबादी के अनुपात में बहुत कम हो पाएगा। असंतोष मधेशियों और थारु समुदाय तक सीमित नहीं है। अनेक जनजातियां इस बात को लेकर नाराज हैं कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व का हिस्सा घटा दिया गया है; 2007 के अंतरिम संविधान में आनुपातिक प्रणाली के तहत चुने जाने वाले प्रतिनिधित्व को अट्ठावन फीसद रखने की पेशकश की गई थी, पर अब इसे पैंतालीस फीसद कर दिया गया है।

मजे की बात यह है कि नए संविधान के बहुत सारे अहम प्रावधान बिना किसी गंभीर बहस के स्वीकार कर लिए गए। पड़ोसी देश पर तोहमत मढ़ कर भावनाएं भले भड़काई जा सकें, पर नेपाल के नेतृत्व को समझना होगा कि इस तरह अपनी आंतरिक विसंगतियों का समाधान नहीं किया जा सकता।

फेसबुक पेज को लाइक करने के लिए क्लिक करें- https://www.facebook.com/Jansatta

ट्विटर पेज पर फॉलो करने के लिए क्लिक करें- https://twitter.com/Jansatta