हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के उदारवादी धड़े के प्रमुख मीरवाइज उमर फारूक ने पिछले हफ्ते कहा कि उनके संगठन ने कश्मीरी पंडितों की घाटी में वापसी के लिए उनसे बातचीत करने का फैसला किया है; इस निमित्त हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के दोनों धड़ों और जेकेएलएफ के नुमाइंदों की एक समिति गठित की जाएगी। बीते शुक्रवार को जुमे की नमाज के बाद लोगों को संबोधित करते हुए उमर फारूक ने यह भी कहा कि कश्मीरी पंडित कश्मीरी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं और उनकी वापसी के लिए कोई शर्त नहीं है, वे चाहे जिस राजनीतिक विचारधारा का समर्थन कर सकते हैं। कश्मीरी पंडित 1989 में, आतंकवाद के उभार के कारण, घाटी छोड़ कर पलायन करने को विवश हुए थे।

ऐसे बासठ हजार पंजीकृत परिवार हैं जो पलायन कर जम्मू, दिल्ली और दूसरी जगहों पर बस गए। पिछले ढाई दशक में उनकी वापसी का मसला जब-तब उठता रहा है। विभिन्न सरकारों ने इसके लिए योजना भी बनाई, पर वह सिरे नहीं चढ़ पाई। पर यह गौरतलब है कि कश्मीरी पंडितों की वापसी की खातिर पहल करने का इरादा घाटी के अलगाववादी संगठन ने जताया है। तो क्या यह मान लिया जाए कि घाटी में कश्मीरी पंडितों के लौटने के लिए अनुकूल माहौल बन गया है? ऐसा मान लेना फिलहाल अति उत्साह होगा।

उमर फारूक का बयान स्वागत-योग्य है, पर सवाल है कि क्या हुर्रियत इस मामले में संजीदा है? कश्मीरी पंडितों ने आर्थिक कारण से पलायन नहीं किया था, बल्कि आतंक के चलते वे अपना घर-परिवेश छोड़ने को मजबूर हुए। वे मानते हैं कि उनके कई भले पड़ोसी थे, पर उन्हें इस बात का रंज भी है कि उन पर मुसीबत के समय वहां का बहुसंख्यक समुदाय मूकदर्शक बना रहा। फिर, जिन लोगों ने उन्हें निशाना बनाया, उनमें से किसी को पिछले छब्बीस सालों में सजा नहीं हुई है। हुर्रियत ने कश्मीरी पंडितों में व्याप्त अविश्वास और असुरक्षा की इस भावना को दूर करने के लिए अब तक क्या किया है?

जहां तक सरकारी प्रयास का सवाल है, मोदी सरकार से पहले भी कश्मीरी पंडितों की वापसी की योजना बनी थी। वर्ष 2008 में मनमोहन सिंह सरकार ने एक विशेष पैकेज पेश किया था जिसमें लौटने पर घर बनाने के लिए दो से साढ़े सात लाख रुपए की मदद और सरकारी नौकरी का आश्वासन भी शामिल था। पर इस पैकेज का कोई खास असर नहीं हुआ। असल में, बीते ढाई दशक में कश्मीरी पंडितों की नई पीढ़ी घाटी के बाहर ही पली-बढ़ी है।

बुजुर्ग पीढ़ी को भले अपने पुराने परिवेश और कश्मीर की मोहक प्रकृति की याद सताती हो, पर नई पीढ़ी, जो विभिन्न तरह के कौशल और कामों में अपने को लगा चुकी है, उसे लगता है कि घाटी लौटने पर उसके लिए कॅरियर के अवसर बहुत सीमित होंगे। पर जो लौटना चाहें उनके लिए वापसी का रास्ता खुलना चाहिए, क्योंकि यह एक मानवीय प्रश्न है जो देश के सेक्युलर ताने-बाने से भी नाता रखता है। मोदी सरकार ने अपने पहले ही बजट में कश्मीरी पंडितों के पुनर्वास के लिए पांच सौ करोड़ रुपए का प्रावधान किया। पर उनके लिए अलग टाउनशिप बनाने की योजना पर उठा विवाद कायम है। राज्य सरकार जहां इस योजना पर ढुलमुल नजर आती है, वहीं हुर्रियत कॉन्फ्रेंस अलग टाउनशिप बनाने का विरोध कर रही है। तो क्या कश्मीरी पंडितों की वापसी की बात करना महज जुबानी जमाखर्च है?