काफी जद्दोजहद के बाद शुक्रवार को दिल्ली पुलिस ने सर्वोच्च न्यायालय को सूचित किया कि भारतीय कुश्ती महासंघ यानी डब्लूएफआइ के अध्यक्ष और सांसद बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एक नाबालिग सहित सात महिला पहलवानों के यौन उत्पीड़न और धमकी देने के आरोपों पर वह प्राथमिकी दर्ज करेगी।
गौरतलब है कि बृजभूषण शरण सिंह पर लगे आरोपों के संदर्भ में अब तक कार्रवाई न होने की स्थिति में महिला पहलवानों को आंदोलन तक का रास्ता अख्तियार करना पड़ा। हालांकि कुछ समय पहले जनवरी में भी पीड़ितों की ओर से पहली बार इन आरोपों के साथ सार्वजनिक रूप से अपना विरोध और दुख जाहिर किया गया था। मगर तब केंद्रीय युवा और खेल मामलों के मंत्री अनुराग ठाकुर की ओर से उचित कार्रवाई सुनिश्चित कराए जाने के आश्वासन पर महिला पहलवानों ने अपना विरोध वापस ले लिया था। लेकिन विडंबना यह है कि तीन महीने के बाद भी इस मसले पर कोई सक्रियता नहीं दिखी और पीड़ितों को एक बार फिर दिल्ली के जंतर मंतर पर अपना विरोध प्रदर्शन शुरू करना पड़ा।
जब उन्होंने बृजभूषण शरण सिंह के खिलाफ एफआइआर के उनके अनुरोध पर तत्काल सुनवाई के लिए सुप्रीम कोर्ट का रुख किया और शीर्ष अदालत ने दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी कर कहा कि मामला दर्ज क्यों नहीं किया गया है, तब जाकर अदालत को प्राथमिकी दर्ज किए जाने के बारे में सूचित किया गया।
जाहिर है, पुलिस ने अब जिन शिकायतों पर प्राथमिकी दर्ज करने की बात कही, उनके कानूनी रूप से ठोस आधार थे। सवाल है कि आखिर क्या कारण रहे कि इस मसले के उठने के बाद से ये आधार मौजूद होने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने कानूनी कार्रवाई शुरू करने में इतना लंबा वक्त लगाया। हैरानी की बात यह है कि इस मामले में शिकायत सामने आने पर संवेदनशील तरीके से कार्रवाई करने के बजाय पुलिस की ओर से यहां तक कहा गया कि प्राथमिकी दर्ज करने से पहले आरोपों की जांच करने की जरूरत होगी।
क्या पुलिस इस तरह की सभी शिकायतों के मामले में ऐसा ही मानदंड अपनाती है? अगर कानून सबके लिए बराबर है, तो अलग-अलग आरोपियों के खिलाफ कार्रवाई को लेकर सक्रियता के पैमाने अलग-अलग क्यों हो जाते हैं? क्या यह अपने आप में आरोपी को बचाने की कोशिश और कानून के शासन को सवालों के कठघरे में खड़ा करना नहीं है? यह बेवजह नहीं है कि इस समूचे मामले में पुलिस के रवैये पर सवाल उठ रहे हैं कि वह पद और कद को देख कर कार्रवाई का स्तर तय करती है।
हालांकि बृजभूषण शरण सिंह अगर अपने ऊपर लगे यौन-उत्पीड़न के आरोपों से इनकार कर रहे हैं तो सबसे पहले उन्हें संगठन और अपनी गरिमा का खयाल रखते हुए कोई स्पष्ट फैसला आने तक के लिए अपने पद से हट जाना चाहिए था और कानूनी प्रक्रिया में सहयोग करना चाहिए था। लेकिन जो हो रहा है, वह सबके सामने है। दरअसल, इस समूचे प्रसंग में एक अहम पक्ष यही है कि जिस कद और पद के व्यक्ति के खिलाफ महिला पहलवानों ने यौन उत्पीड़न जैसे गंभीर आरोप लगाए हैं, उसमें अपेक्षया ज्यादा शिद्दत से कार्रवाई की जरूरत है।
अंतरराष्ट्रीय पटल पर एक सबसे महत्त्वपूर्ण खेल के रूप में कुश्ती के क्षेत्र में देश को आगे बढ़ाने की कमान जिस व्यक्ति के हाथ में है, अगर वही यौन उत्पीड़न जैसे जघन्य आरोपों के कठघरे में खड़ा है, तो उसके नेतृत्व में इस खेल और इसके खिलाड़ियों के भविष्य की कल्पना ही की जा सकती है। जरूरत इस बात की है आरोपी के रसूख पर ध्यान न देकर पीड़ितों की शिकायत पर पुलिस और कानून अपना काम ईमानदारी से करे।
