नेपाल में नए संविधान के स्वरूप को लेकर चल रहे आंदोलनों के मद्देनजर स्वाभाविक ही भारत से हस्तक्षेप की जरूरत महसूस की जा रही थी। आखिरकार भारत ने नेपाल सरकार को सात अनुच्छेदों में संशोधन का सुझाव दिया है। इससे आंदोलन कर रहे दक्षिणी नेपाल के मधेसी और जनजातीय समुदाय के लोगों को संबल मिलेगा। करीब सात साल पहले राजशाही समाप्त होने के बाद नेपाल में जनतंत्र स्थापित करने वाला नया संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई थी, मगर अनेक अवरोधों के चलते इसे अंतिम रूप देने में देर होती रही। मधेसी और जनजातीय समुदाय के लोग लगातार नए संविधान में प्रतिनिधित्व के मसले को लेकर विरोध जाहिर कर रहे थे। संविधान सभा के उनहत्तर सदस्यों ने संविधान निर्माण प्रक्रिया का बहिष्कार किया था।
दरअसल, पहले वहां के संविधान में प्रावधान था कि निर्वाचन क्षेत्रों का निर्धारण आबादी, भौगोलिक स्थिति, विशेष लक्षणों के अनुसार होगा और मधेसियों के मामले में यह जनसंख्या के प्रतिशत के आधार पर होगा। लेकिन नए संविधान में एक तरह से मधेसी लोगों को बाहरी के तौर पर माना गया है। इसमें कहा गया है कि प्रमुख संवैधानिक पदों पर वही लोग होंगे, जो नेपाल के मूल निवासी हैं। इसी तरह मधेसी लोगों के राजनीति में प्रतिनिधित्व को भी संकुचित कर दिया गया है। मधेसी दरअसल भारत से जाकर वहां बस गए लोग हैं, मगर हकीकत यह है कि बरसों से वहां रहते हुए उन्होंने नेपाल की नागरिकता हासिल की है। उनमें से बहुत सारे लोग वहीं पैदा हुए और वहीं के होकर रह गए हैं, इसलिए उनकी नागरिकता पर सवाल खड़े करना या फिर उनके प्रतिनिधित्व को लेकर भेदभाव रखना जनतांत्रिक नहीं कहा जा सकता।
नेपाल के नए संविधान में मधेसी और जनजातीय लोगों के प्रतिनिधित्व को लेकर भेदभाव के विरोध में उभरे आंदोलन में अब तक चालीस से ऊपर लोग मारे जा चुके हैं। इस पर भारत के अलावा नेपाल के राष्ट्रपति ने भी चिंता जताई है। इस हिंसक आंदोलन को रोकने का यही तरीका हो सकता है कि संविधान के एतराज वाले पक्षों पर फिर से विचार हो। भारत ने जिन सात अनुच्छेदों में संशोधन का सुझाव दिया है, उनमें मधेसी लोगों के हितों की अनदेखी की गई है। भारत चूंकि नेपाल का पड़ोसी देश ही नहीं, उसके हर राजनीतिक उथल-पुथल के दौर में मददगार रहा है, इसलिए उसके इस हस्तक्षेप का खासा महत्त्व है। श्रीलंका में तमिलों के अधिकारों की अनदेखी की वजह से वहां किस कदर राजनीतिक अस्थिरता का माहौल रहता है, यह छिपी बात नहीं है।
अगर नेपाल के संविधान में भी मधेसी और जनजातीय समुदाय के लोगों के साथ राजनीतिक प्रतिनिधित्व और रोजगार के अवसरों, वहां रहने, शादी-विवाह आदि करने को लेकर भेदभावपूर्ण उपबंध बनाए रखा गया, तो उसके दूरगामी दुष्परिणाम हो सकते हैं। यह चिंता केवल भारत की नहीं, किसी भी लोकतांत्रिक देश की होनी चाहिए कि वहां के नागरिकों के अधिकारों में भेदभाव उजागर हो। इस तरह किसी देश में सही अर्थों में जनतंत्र की स्थापना संभव नहीं हो सकती। वह हमेशा एक नाजुक मसला बना रहेगा। अगर नेपाल में अस्थिरता का माहौल बना रहेगा तो जिस लोकतंत्र की स्थापना का सपना वह देख रहा है, अधूरा ही रहेगा।
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