महंगाई पर काबू पाने के सारे उपाय विफल नजर आ रहे हैं। मुद्रास्फीति के ताजा आंकड़े बताते हैं कि पिछले चार महीनों में महंगाई अपने उच्च स्तर पर रही। पिछले साल की इसी अवधि में महंगाई 3.68 फीसद थी, जबकि इस बार यह 5.13 फीसद पर पहुंच गई। इसकी कुछ वजहें साफ हैं। पिछले कुछ महीनों में अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमतें बढ़ने की वजह से ढुलाई का खर्च बढ़ा। फिर रुपए की कीमत लगातार कम होते जाने की वजह से भी महंगाई की दर पर काबू पाने में मुश्किलें बनी रहीं। हालांकि इस अवधि में रोजमर्रा की जिन वस्तुओं की कीमतों में काफी बढ़ोतरी दर्ज की गई उनमें से कई सब्जियों की पैदावार इस मौसम में न होने के कारण भी यह असर दिखाई दिया। हालांकि कई सब्जियों के भाव गिरे भी। पर कुल मिला कर ताजा आंकड़े कई तरह के विरोधाभास पैदा करते हैं।

आमतौर पर होता यह है कि जब थोक बाजार में कीमतें बढ़ती हैं तो खुदरा बाजार में इसकी तुलना में काफी अधिक कीमतें बढ़ जाती हैं। इसका नतीजा यह होता है कि आम उपभोक्ता की जेब पर असर पड़ता है। मगर महंगाई के ताजा आंकड़ों में पहला विरोधाभास यह नजर आया कि थोक मुद्रास्फीति की तुलना में खुदरा दरें काफी कम दर्ज की गर्इं। हालांकि खुदरा बाजार का तंत्र जरूरी नहीं कि थोक बाजार से ही नियंत्रित हो या उसके जरिए ही संचालित हो। कई बार स्थानीय बाजारों में थोक बाजार के बजाय किसानों से सीधे खरीद कर वस्तुएं बिक्री के लिए उपलब्ध होती हैं, इसलिए थोक बाजार की तुलना में अनेक बार अंतर नजर आता है। मगर बड़े शहरी क्षेत्रों में खुदरा दुकानों पर वस्तुओं की पहुंच थोक बाजार के जरिए ही होती है, इसलिए कीमतें वहां उसी के अनुरूप बढ़ती या घटती हैं। सो, थोक मुद्रास्फीति की दरों का असर निश्चित रूप से बड़े शहरों के नागरिकों की जेब पर पड़ रहा है। हालांकि अक्तूबर में थोक मुद्रास्फीति की दर में नरमी आई है। इसकी वजह कच्चे तेल की कीमतों में कमी आना और बाजार में नई फसल पहुंचना है। यों भी सर्दी के मौसम में बाजार में सब्जियों की आवक बढ़ जाती है, इसलिए इनकी कीमतें दूसरे मौसमों की तुलना में कम होती हैं। इसलिए इससे महंगाई पर काबू पाने का दावा नहीं किया जा सकता। दूसरे खाद्यान्नों की कीमतों में असंतुलन बना रहने से महंगाई की दर काबू में नहीं आ पाती।

थोक और खुदरा वस्तुओं की कीमतों में अंतर के पीछे एक बड़ी वजह यह है कि आयात और निर्यात नीति पर संतुलित तरीके से ध्यान नहीं दिया गया। मसलन, इस साल दालों का उत्पादन जरूरत से कहीं अधिक हुआ, पर उनका निर्यात बढ़ाने के बजाय दूसरे देशों से करार के मुताबिक दालों का आयात किया गया। इसका नतीजा यह हुआ कि किसान स्थानीय बाजारों में न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम दर पर दालें बेचने को विवश हुए। जबकि दूसरी तरफ आयातित दालें थोक बाजार की मार्फत बड़े शहरों में बिकती रहीं, जिनकी कीमत अधिक रही। इसी तरह चीनी और दूसरे कई अनाजों के मामले में देखा गया। इस लिहाज से न सिर्फ तेल की कीमतें बढ़ने और रुपए का मूल्य घटने का असर महंगाई पर दिखा, बल्कि आयात और निर्यात में असंतुलन भी बड़ा कारण रहा। महंगाई पर काबू पाने के लिए वस्तुओं के विपणन, भंडारण और आयात पर तर्कसंगत नजरिए से काम होना चाहिए।