उदारीकरण के दौर ने रेटिंग एजेंसियों की पूछ बढ़ा दी। सारे देश उनसे बेहतर प्रमाणपत्र पाने को लालायित रहते हैं, इस खयाल से कि रेटिंग एजेंसियों की नजरों में चढ़ना विदेशी निवेश आकर्षित करने में मददगार होगा। वरना देश के भीतर अपनी अर्थव्यवस्था पर नजर रखने और उसका आकलन करते रहने वाले सरकारी विभागों व गैर-सरकारी संस्थाओं की कोई कमी नहीं है। कुछ दिन पहले भारतीय अर्थव्यवस्था के बारे में अंतरराष्ट्रीय रेटिंग एजेंसी मूडीज का आकलन आया था। तब सरकार फूले नहीं समा रही थी, क्योंकि मूडीज ने भारत की रेटिंग बीएए-3 से बीएए-2 कर दी थी, यानी भारत का स्थान एक पायदान ऊपर कर दिया था। इससे अर्थव्यवस्था की हालत को लेकर आलोचना झेल रही सरकार को अपनी पीठ थपथपाने का मौका मिल गया। लेकिन अब मूडीज जैसी एक दूसरी जानी-मानी एजेंसी एस ऐंड पी यानी स्टैंडर्ड ऐंड पुअर्स ने जो कहा है उसमें नाराज होने वाली कोई बात नहीं है तो खुश होने की भी कोई बात नहीं है। एस ऐंड पी ने भारत की रेटिंग को स्थिर परिदृश्य के साथ बीबीबी ऋणात्मक पर कायम रखा है।
मूडीज की तरह एस ऐंड पी ने भी भारत में आर्थिक सुधार के लिए उठाए गए कदमों की तारीफ की है और अगले वित्तवर्ष में जीडीपी में बढ़ोतरी की संभावना जताई है, पर कुछ कारणों से उसने पहले दी हुई रेटिंग में इजाफा करने से मना कर दिया। रेटिंग में सुधार न करने के पीछे उसने कम प्रतिव्यक्ति आय और सरकार पर भारी कर्ज को प्रमुख कारण बताया है। एस ऐंड पी ने 2007 में भारत की रेटिंग सुधारी थी- बीबी प्लस से बीबीबी माइनस कर दिया था। इसे सबसे खराब रेटिंग से बस एक पायदान ऊपर माना जाता है। एस ऐंड पी की निगाह में दस साल से भारत वहीं है। उसके ताजा आकलन पर सरकार के प्रधान आर्थिक सलाहकार संजीव सान्याल ने नाराजगी जताते हुए कहा है कि निम्न प्रतिव्यक्ति आय से सरकार के कर्ज चुकाने की क्षमता का कोई संबंध नहीं है, वहीं आर्थिक मामलों के सचिव सुभाष चंद्र गर्ग का कहना है कि एस ऐंड पी ने सतर्कता बरती, पर हम निराश नहीं हैं, उम्मीद है अगले साल रेटिंग जरूर बढ़ेगी। पर चाहे मूडीज हो चाहे एस ऐंड पी या कोई और रेटिंग एजेंसी, सवाल है कि क्या किसी देश की अर्थव्यवस्था के आकलन के उनके पैमाने पर्याप्त हैं और हमें उनकी दी हुई रेटिंग को ही पूरा सच मान लेना चाहिए। यह किसी से छिपा नहीं है कि रेटिंग एजेंसियां दुनिया की विभिन्न अर्थव्यवस्थाओं को बाजारवादी चश्मे से ही देखती हैं और बहुत सारी जमीनी हकीकत को अनदेखा कर देती हैं।
मूडीज और एस ऐंड पी, दोनों ने जीडीपी, मौद्रिक साख, जीएसटी और बैंकों के पुनर्पूंजीकरण जैसे पहलुओं का ही जिक्र किया है। किसी ने भी नोटबंदी के बाद बंद हुए छोटे उद्यमों, लाखों लोगों के काम-धंधे छिन जाने, रोजगार के मोर्चे पर भारत की हालत और किसानों की आत्महत्या की घटनाओं पर चिंता नहीं जताई है। फिर, सरकार का रवैया देखिए। प्रधान आर्थिक सलाहकार को इस बात का रंज है कि प्रतिव्यक्ति आय जैसे कारक को एस ऐंड पी ने क्यों अहमियत दे दी! कहीं हम अर्थव्यवस्था को आम लोगों के जीवन-स्तर से काट कर देखने की वकालत तो नहीं कर रहे हैं! विभिन्न देशों की हालत पर कुछ और भी अध्ययन आते हैं। मसलन, संयुक्त राष्ट्र शिक्षा, आवास, स्वास्थ्य, रहन-सहन आदि के पैमानों पर हर साल तमाम देशों के बारे में मानव विकास सूचकांक रिपोर्ट जारी करता है। उस पर बहस क्यों नहीं होती, जबकि वह रिपोर्ट कहीं अधिक वास्तविक तस्वीर पेश करती है।