अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल पद से ज्योति प्रसाद राजखोवा की विदाई के संकेत पिछले हफ्ते ही मिल गए थे, जब केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने राष्ट्रपति से मुलाकात की थी। केंद्र ने सोचा होगा कि संकेत मात्र से राजखोवा हट जाएंगे। लेकिन साफ संदेश दिए जाने के बाद भी राजखोवा नहीं हटे। आखिरकार केंद्र की सलाह पर राष्ट्रपति को उन्हें पद से मुक्त करने का आदेश जारी करना पड़ा। यानी यह बर्खास्तगी है। कहने को स्वास्थ्य संबंधी कारणों से राजखोवा को राज्यपाल पद से मुक्त किया गया है। पर राजखोवा ने केंद्र के इस स्वांग को बेपर्दा कर दिया, यह कह कर वे पूरी तरह स्वस्थ हैं। फिर उन्हें क्यों हटाया गया? दरअसल, तेरह जुलाई को आए सर्वोच्च अदालत के आदेश ने राज्यपाल के साथ-साथ केंद्र की भी खूब किरकिरी कराई थी। इस तरह राजखोवा को हटा कर केंद्र ने देर से ही सही, अपनी लाज बचाने की कोशिश की है।
उस आदेश के जरिए अदालत ने, राज्यपाल राजखोवा के सारे फैसलों को खारिज करते हुए, अरुणाचल में कांग्रेस की सरकार बहाल कर दी थी। इसके साथ ही अदालत ने कहा था कि पार्टी के भीतर के मतभेदों और झगड़ों से राज्यपाल का कोई वास्ता नहीं होना चाहिए और उन्हें हर हाल में निष्पक्ष रहना और दिखना चाहिए। सर्वोच्च अदालत के इस फैसले के बाद राजखोवा को फौरन राज्यपाल पद छोड़ देना चाहिए था, पर वे जमे रहे और तब तक नहीं हटे जब तक बर्खास्त नहीं कर दिए गए। कांग्रेस के बागी विधायकों और भाजपा की मदद करके तो उन्होंने राज्यपाल पद की गरिमा गिराई ही, सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद कुर्सी से चिपके रह कर भी उन्होंने वही किया। लेकिन केंद्र ने जो किया वह भी संवैधानिक औचित्य और राजनीतिक शुचिता का व्यवहार नहीं था। क्या राजखोवा का यह कहना गलत है कि राष्ट्रपति शासन सिर्फ राज्यपाल की रिपोर्ट के आधार पर नहीं लगाया गया था?
असल में, अगर केंद्र की मर्जी या मंशा न होती, तो न राष्ट्रपति शासन लगता न भाजपा के समर्थन से कांग्रेस के बागी विधायक कलिखो पुल सरकार बना पाते। राज्यपाल से मनचाही रिपोर्ट हासिल कर कांग्रेस में सेंध लगा कर उसकी राज्य सरकार की विदाई की कोशिश केंद्र ने उत्तराखंड में भी की।
ऐसा लगता है कि राजखोवा की बर्खास्तगी के बहाने केंद्र ने अपनी झेंप मिटाने का प्रयास किया है। दलगत स्वार्थों के लिए राज्यपाल के पद का इस्तेमाल दशकों से होता आया है। विपक्ष में रहते हुए भाजपा इसे कांग्रेसी दौर की एक बड़ी विकृति बताते और संघवाद का पक्ष लेते नहीं थकती थी। लेकिन उसने भी वही किया जो इंदिरा गांधी के जमाने से कांग्रेस सरकारें करती आई थीं। राजखोवा तो हटा दिए गए, पर सवाल है कि क्या राज्यपाल पद के दुरुपयोग का सिलसिला बंद हो जाएगा? यह तभी हो सकता है जब राज्यपाल के चयन की परिपाटी बदली जाए, जिसमें केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी के चुके हुए राजनीतिकों या वफादारों को राजभवन की कमान सौंपी जाती है। सरकारिया आयोग ने सिफारिश की थी कि राज्यपाल ऐसे लोग न बनाए जाएं जिनका केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी से प्रत्यक्ष या परोक्ष नाता रहा हो। विडंबना यह है कि सहकारी संघवाद का जाप करने वाली भाजपा ने केंद्र में आते ही सारे राज्यपाल बदल डाले और वैसी ही दलीलें देने लगी जो कांग्रेस देती थी। संघीय भावना की रक्षा और संघीय ढांचे की मजबूती के लिए राज्यपाल पद की निष्पक्षता सुनिश्चित करना जरूरी है।