हाल के दिनों में जिस तरह किसी अफवाह के कारण भीड़ में तब्दील हो गए लोगों की हिंसा के मामले लगातार सामने आ रहे हैं, वह बेहद चिंताजनक है। इसकी वजह से कई लोगों की जान जा चुकी है। हैरानी की बात यह है कि ऐसा करते हुए लोगों के भीतर शायद एक बार भी यह खयाल नहीं आता कि उन्होंने पुलिस को सूचना देने के बजाय खुद ही कथित संदिग्ध को मार डाला तो उनके खिलाफ कानूनी कार्रवाई हो सकती है। मंगलवार को सुप्रीम कोर्ट ने फिर से इस प्रवृत्ति पर चिंता जताई और कहा कि कोई भी नागरिक अपने आप में कानून नहीं बन सकता है; लोकतंत्र में भीड़तंत्र की इजाजत नहीं दी जा सकती है। अदालत ने सरकार से भीड़ के हाथों हत्या को एक अलग अपराध की श्रेणी में रखने और इसकी रोकथाम के लिए नया कानून बनाने को कहा। विडंबना यह है कि अदालत के आदेश के कुछ ही देर बाद झारखंड में स्वामी अग्निवेश पर युवकों के एक समूह के हमले की खबर आ गई। दरअसल, जो लोग भीड़ बन कर हिंसा या हत्या कर रहे होते हैं, उन्हें या तो कानून का कोई डर नहीं होता या फिर राजनीतिक संरक्षण प्राप्त होता है। यही वजह है कि इस तरह की लगातार घटनाओं ने देश के लोकतांत्रिक ढांचे और विधि के शासन के सामने एक नई चुनौती खड़ी कर दी है।
इस संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने साफ कहा कि लोकतंत्र के भयानक कृत्यों को एक नया मानदंड बनने की इजाजत नहीं दी जा सकती है और इसे सख्ती से दबाया जाना चाहिए। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय के दौरान कर्नाटक, त्रिपुरा, असम आदि कई राज्यों में गोहत्या से लेकर बच्चा चोरी की अफवाहों की वजह से लोगों के मारे जाने की कई घटनाएं हो चुकी हैं। आज ज्यादातर हाथों में स्मार्टफोन मौजूद है, लेकिन इसके इस्तेमाल को लेकर जागरूकता का घोर अभाव है। ऐसी स्थिति में वाट्सऐप पर आए संदेश के सही या गलत होने की पुष्टि करना लोग जरूरी नहीं मानते और इसके असर में आकर एक उन्माद का शिकार हो जाते हैं। सवाल है कि जिन संदेशों की वजह से लोग भीड़ में तब्दील होकर हिंसा कर रहे हैं, वे कहां तैयार किए जाते हैं और कहां से जारी किए जाते हैं। जब तक इस स्रोत को निशाने पर नहीं लिया जाएगा, तब तक किसी भी सख्त कानून की जद में वही लोग आएंगे, जिनका सिर्फ इस्तेमाल होता है। असली अपराधी परदे के पीछे सुरक्षित काम करते रहेंगे।
भीड़ की हिंसा पहले भी कभी-कभार सामने आती थी। लेकिन तब इस तरह के मामलों की प्रवृत्ति सुनियोजित नहीं होती थी। आजकल जो घटनाएं सामने आ रही हैं, उनके पीछे नफरत और शक का माहौल पैदा करने की मंशा दिखती है। इसके अलावा, विचारों से असहमति भी आज किसी व्यक्ति पर हमले का कारण बन रही है। विडंबना यह है कि राजनेताओं की ओर से जहां इस प्रवृत्ति पर काबू पाने में अपनी भूमिका निभाने की अपेक्षा की जाती है, वहां ऐसी खबरें निराश करती हैं कि भीड़ बन कर एक व्यक्ति की हत्या करने वाले सजायाफ्ता लोगों के जमानत पर छूटने पर केंद्रीय मंत्री स्तर के एक नेता ने उनका स्वागत किया। यह एक तरह से हिंसा करने वालों को प्रोत्साहित करना है। ऐसे में प्रधानमंत्री की उस चिंता को धक्का लगता है, जिसमें उन्होंने भीड़ के हाथों गोरक्षा के नाम पर की जाने वाली हत्याओं पर नाराजगी जताई थी।