आखिरकार महीने भर से खटपट के बाद बुधवार को नीतीश कुमार ने एक झटके में राष्ट्रीय जनता दल से पिंड छुड़ा लिया। उन्होंने राज्यपाल से मिल कर इस्तीफा दे दिया, और इस तरह जनता दल (यू), राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस का ‘महागठबंधन’ टूट गया। इस्तीफे के साथ ही जनता दल (यू) और भाजपा का नया गठजोड़ सामने आ गया। कुछ ही घंटों के भीतर, देर रात को नीतीश जद (यू) तथा राजग के संयुक्त विधायक दल के नेता चुन लिये गए, और उन्होंने फिर से सरकार बनाने का दावा पेश कर दिया। फिर दूसरे दिन यानी गुरुवार को सुबह दस बजे राज्यपाल ने उन्हें मुख्यमंत्री पद की शपथ भी दिला दी। उनके साथ फिलहाल भाजपा के केवल सुशील कुमार मोदी ने शपथ ली, उपमुख्यमंत्री पद की। इस तरह उसी जोड़ी और उसी गठजोड़ की वापसी हो गई जो 2013 तक था। लेकिन इसे ‘घर वापसी’ कहना गलत होगा। लोकसभा चुनाव से पहले, जनता दल (यू) ने राजग से नाता तोड़ लिया था, तो इसमें नीतीश की ही सबसे अहम भूमिका थी। नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर चुनाव लड़ने का भाजपा का फैसला उन्हें कतई रास नहीं आया था।
राजग से अलग होने के बाद, भाजपा से फिर कभी न जुड़ने की कसम वाले उनके ढेरों बयान याद किए जा सकते हैं। पर अब वे भाजपा के पाले में हैं और भाजपा उनके साथ है। मोदी, नीतीश के प्रशंसक हो गए हैं, और नीतीश, मोदी के मुरीद।

इस्तीफा देते ही जिस तरह फौरन मोदी से लेकर भाजपा के अनेक नेताओं ने नीतीश की तारीफ में ट्वीट किए, और कुछ ही घंटों में नए गठजोड़ से लेकर नई सरकार तक सब कुछ तय हो गया, उससे ऐसा लगता है कि शायद खिचड़ी पहले से पक रही थी! कह सकते हैं कि नीतीश के सामने बड़ी विकट स्थिति थी। मंत्रिमंडल से तेजस्वी के न हटने पर भी अगर वे राजद के साथ सरकार चलाते रहते, तो उनकी अपनी छवि धूूमिल होने का खतरा था। ईमानदारी और सुशासन को नीतीश अपनी सबसे बड़ी राजनीतिक पूंजी मानते होंगे। पर फिर से भाजपा का दामन थाम लेने से उनकी राजनीतिक विश्वसनीयता को चोट पहुंची है। यही नहीं, विपक्ष की एकजुटता के प्रयासों को भी गहरा धक्का लगा है, जो अगले लोकसभा चुनाव के मद््देनजर बिहार के महागठबंधन की तर्ज पर राष्ट्रीय स्तर पर भी वैसा करने के मंसूबे बांध रहा था। सबसे ज्यादा चोट पहुंची है, राष्ट्रीय जनता दल तथा लालू और उनके परिवार को। सत्ता से बाहर तो वे हुए ही, अब जांच एजेंसियों की कार्रवाई तथा भाजपा के हमले झेलना उनके लिए पहले से ज्यादा मुश्किल होगा।

लालू धोखेबाज कह कर नीतीश को कोस रहे हैं, पर तेजस्वी का इस्तीफा दिला कर वे यह नौबत आने से रोक सकते थे। फायदे में कोई है, तो केवल भाजपा। विधानसभा चुनाव हारने के बावजूद, बीस महीने बाद वह कनिष्ठ साझेदार के तौर पर ही सही, बिहार की सत्ता में लौट आई है। फिर, वह लालू और नीतीश को परस्पर विरोधी बनाने में कामयाब हो गई है, जिनके वोट जुड़ने से उसे मुंह की खानी पड़ी थी। नीतीश अगर बहुमत साबित करने में सफल हो जाते हैं, तब भी उनकी सरकार मामूली बहुमत पर टिकी होगी और पूरी तरह भाजपा की मर्जी पर निर्भर रहेगी। लेकिन अगले विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा को अगर सरकार बनाने का मौका मिला तो क्या वह उन्हें मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार करेगी? दूसरी तरफ, वे विपक्ष की राजनीति में बड़ी भूमिका निभाने का भरोसा भी खो चुके होंगे। जाहिर है, नीतीश फिर से सरकार बनाने में भले सफल हो गए हों, अपनी दीर्घकालीन संभावनाओं को उन्होंने गहरी क्षति पहुंचाई है।