सार्वजनिक मंचों से ऐसे आदर्शवादी बयान वे अनेक मौकों पर देते आए हैं। मगर धरातल पर नीतिगत प्रयासों के अपेक्षित नतीजे नजर नहीं आते। रिजर्व बैंक ने माना है कि अगर महंगाई की दर को छह फीसद तक सीमित रखने में कामयाबी मिल जाती है, तो अर्थव्यवस्था में सुधार की उम्मीद की जा सकती है। मगर इस स्तर पर भी महंगाई को ला पाना उसके लिए चुनौती बना हुआ है।

कुछ हफ्ते पहले ही रिजर्व बैंक को लिखित रूप में सरकार के सामने सफाई पेश करनी पड़ी कि महंगाई को रोक पाने में उससे कहां चूक हुई है। वह कई बार बैंक की रेपो दर में बढ़ोतरी कर महंगाई को रोकने का प्रयास कर चुका है। उसके कुछ सकारात्मक नतीजे जरूर सामने आए हैं, मगर यह कोई भरोसेमंद उपाय साबित नहीं हो पा रहा। उल्टा, इसका बुरा असर कर्ज लेने वालों पर पड़ रहा है। कारोबार, मकान और वाहन के लिए कर्ज लेने वालों ने अपने हाथ रोक लिए हैं। महंगाई के काबू में आने की कोई सूरत नजर नहीं आ रही, फिर भी न जाने किस भरोसे रिजर्व बैंक के गवर्नर इसे काबू में लाने का दम भर रहे हैं।

फिलहाल स्थिति यह है कि सरकार मासिक आंकड़ों के आधार पर भविष्य का आकलन करने लगती है। नवंबर महीने में खुदरा महंगाई में कुछ कमी दर्ज हुई, तो रिजर्व बैंक के गवर्नर को लगने लगा कि इस समस्या का स्थायी समाधान निकाला जा सकेगा। हालांकि वे जमीनी हकीकत से अनजान नहीं माने जा सकते। खुदरा महंगाई में इसलिए भी कुछ कमी दर्ज हुई, क्योंकि नवंबर-दिसंबर के महीने में नई फसल तैयार हो जाती है, साग-सब्जियों की पैदावार बढ़ जाती है। इसलिए खाने-पीने की चीजें कुछ सस्ती हो जाती हैं।

इसका दूसरा पहलू यह है कि थोक महंगाई का रुख लगातार ऊपर की तरफ बना हुआ है। औद्योगिक उत्पादन घट रहा है। उत्पादन घटने का अर्थ है, महंगाई का बढ़ना। इसलिए टिकाऊ उपभोक्ता वस्तुओं के स्तर पर देखें, तो महंगाई काफी बढ़ी हुई दर्ज होती है। फिर निर्यात लगातार घट और आयात बढ़ रहा है। यानी घरेलू बाजार सिमटता गया है। ऐसे में केवल मौसमी वस्तुओं की उपलब्धता बढ़ने के कारण कीमतें घटने के आधार पर आया महंगाई का आंकड़ा संतोषजनक नहीं माना जा सकता।

महंगाई पर काबू पाने के लिए तेल और र्इंधन की कीमतों पर नियंत्रण जरूरी है। मगर एक तो अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल की कीमत बढ़ने और फिर उत्पादन शुल्क में अपेक्षित कमी न लाए जा पाने की वजह से इसे संतुलित नहीं रखा जा पाता। राज्य सरकारों ने वैट और केंद्र ने उत्पाद शुल्क में कुछ कटौती करके इसे संतुलित करने का प्रयास जरूर किया, पर वह पर्याप्त नहीं साबित हो रहा। इस तरह माल ढुलाई महंगी हो गई है।

जाहिर है, उसका असर खुदरा वस्तुओं की कीमत पर पड़ रहा है। रिजर्व बैंक रेपो दरों में बढ़ोतरी का उपाय आजमा चुका है। अब साबित हो चुका है कि वह महंगाई पर काबू पाने का एकमात्र उपाय नहीं हो सकता। महंगाई इसलिए लोगों की सहनशीलता से पार निकल गई है कि उनकी क्रयशक्ति क्षीण हो गई है। मगर या तो क्रयशक्ति बढ़ाने के उपायों पर अपेक्षित ध्यान नहीं दिया जा पा रहा या इस दिशा में कोई कारगर उपाय सूझ नहीं रहा।