भारतीय रिजर्व बैंक ने अपनी द्विमासिक मौद्रिक समीक्षा में एक बार फिर बैंक दरों के साथ कोई छेड़छाड़ करना उचित नहीं समझा। रेपो दर यथावत साढ़े छह फीसद पर बनी रहेगी। आरबीआइ गवर्नर का कहना है कि उनकी प्राथमिकता खाद्य मुद्रास्फीति को संतुलित करना और चार फीसद तक लाना है। अभी खाद्य मुद्रास्फीति पांच फीसद के आसपास बनी हुई है। इसमें कभी अचानक वृद्धि देखी जाती है। हर समय इसके रुख में अनिश्चितता बनी हुई है। महंगाई पर काबू न पाए जा सकने की वजह से सामान्य लोगों के जीवन पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। हालांकि कुछ औद्योगिक समूहों ने मांग उठानी शुरू कर दी है कि रेपो दरों में कम से कम पच्चीस आधार अंक की कटौती करने का समय आ गया है। मगर आरबीआइ इस दिशा में कोई जोखिम मोल नहीं लेना चाहता। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि ऊंची रेपो दर की वजह से कुछ हद तक महंगाई पर लगाम लगी है, मगर यह कब तक टिकाऊ उपाय साबित होगा, कहना मुश्किल है।

दरअसल, रेपो दर में बढ़ोतरी का असर बैंकों से लिए गए कर्ज की किश्तों पर पड़ता है। बहुत सारे लोगों को इसकी वजह से अपने घर, वाहन, कारोबार आदि के मद में लिए गए कर्ज की ऊंची किश्तें चुकानी पड़ रही हैं, जबकि कोरोनाकाल के बाद से बहुत सारे लोगों की आमदनी घट गई है। औद्योगिक समूहों को कर्ज पर ब्याज अधिक चुकाने के चलते अपने उत्पाद की कीमतें ऊंची रखनी पड़ती हैं, जिससे अंतत: उपभोक्ता पर बोझ बढ़ता है। इसलिए एक तरफ जहां महंगाई को संतुलित करने में कुछ हद तक मदद मिल रही है, वहीं दूसरी तरफ महंगाई बढ़ भी जाती है। रिजर्व बैंक ने इस वित्तवर्ष में विकास दर सात फीसद से ऊपर रहने की संभावना जताई है। मगर विकास दर और महंगाई के बीच कोई सीधा संबंध नजर नहीं आ पा रहा। विकास दर ऊंची रहने के बावजूद सामान्य लोगों के जीवन में बेहतरी के संकेत नहीं दिखाई दे रहे। सबसे हैरानी की बात है कि रोजमर्रा खपत की जिन खाद्य वस्तुओं का उत्पादन भरपूर होता है, उनकी खुदरा कीमतें भी बाजार में अधिक देखी जाती हैं।